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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


और सिर्फ उन्हीं रास्तों पर खतरा नहीं मालूम होता है, जो हमारे परिचित हैं। जिन पर हम बहुत बार गुजरकर गए हैं। तो बूढ़ा मनुष्य कोल्हू के बैल की तरह एक ही रास्ते पर घूमता रहता है। रोज सुबह वहीं उठता है, जहां कल सांझ सोया था! रोज वही करता है, जो कल किया था! रोज वही-जों कल था, उसी में जीने की कोशिश करता है। नए से डरता है। नए में खतरा भी हो सकता है। भयभीत चित्त बूढ़ा होता है। और भय हमारे पूरे प्राणों को किस बुरी तरह मार डालता है, यह हमें पता नहीं है।

मैंने सुना है, एक गांव के बाहर एक फकीर का झोपड़ा था। एक सांझ अंधेरा उतरता था। फकीर झोपड़े के बाहर बैठा है। एक काली छाया उसे गांव की तरफ भागती जाती मालूम पड़ी। रोका उसने उस छाया को! तम पूछा कौन हो? और कहां जाती हो? उस छाया ने कहा, मुझे पहचाना नहीं मैं मौत हूं और गांव में जा रही हूं। प्लेग आने वाला है। गांव में मेरी जरूरत पड़ गई है।
उस फकीर ने पूछा, कितने लोग मर गए हैं? कितने लोगों के मरने का इंतजाम है, कितने की योजना है?
उस मौत की काली छाया ने कहा, बस! हजार लोग ले जाने हैं।
मौत चली गई। महीना भर बीत गया। गांव में प्लेग फैल गया। कोई पचास हजार आदमी मरे। दस लाख की नगरी थी। कुल पचास हजार आदमी मर गए। फकीर बहुत हैरान हुआ कि आदमी धोखा देता था। यह मौत भी धोखा देने लगी, मौत भी झूठ बोलने लगी! और मौत क्यों झूठ बोले? क्योंकि आदमी झूठ बोलता है डर के कारण! मौत किससे डरती होगी, कि झूठ बोले। मौत को तो डरने का कोई कारण नहीं क्योंकि मौत ही डरने का कारण है, तो मौत को क्या डर हो सकता है?

फकीर बैठा रहा कि मौत वापस लौटे, तो पूछ लूं। महीने भर के बाद मौत वापस लौटी। फिर रोका और कहा कि बड़ा धोखा दिया। कहा था हजार लोग मरेंगे, पचास हजार लोग मर चुके हैं।
मौत ने कहा, मैंने हजार ही मारे हैं, बाकी भय से मर गए हैं। उनसे मेरा कोई
संबंध नहीं है। वे अपने-आप मर गए हैं।
और भय से कोई आदमी बिल्कुल मर जाए, बड़ा खतरा नहीं है, लेकिन भय से हम भीतर मर जाते हैं और बाहर जीते चले जाते हैं। भीतर लाश हो जाती है, बाहर जिंदा रह जाते हैं। भीतर सब 'डेड-वेट' हो जाता है-मुर्दा, मरा हुआ। और बाहर हमारी आंखें, हाथ-पैर चलते हुए मालूम पड़ते हैं।

बूढ़े होने का मतलब यह है कि जो आदमी भीतर से मर गया है, सिर्फ बाहर से जी रहा है। जिसकी जिंदगी सिर्फ बाहर है। भीतर जो मर चुका है, वह आदमी बूढ़ा है।
यह हो सकता है, कि एक आदमी बाहर से बूढ़ा हो जाए। शरीर पर झुर्रियां पड़ गई हैं और मृत्यु के चरण-चिह्न दिखाई पड़ने लगे हैं। मृत्यु की पग-ध्वनियां सुनाई पड़ने लगी हैं। और भीतर से जिंदा हो, जवान हो, उस आदमी को बूढ़ा कहना गलत है। बूढ़ा शारीरिक मापदंड से नहीं तौला जा सकता है। बुढ़ापा तौला जाता है, भीतर कितना मृत हो गया है, उससे। कुछ लोग बूढ़े ही जीते हैं; जन्मते हैं और मरते हैं!

कुछ थोड़े-से सौभाग्यशाली लोग युवा जीते हैं। और जो युवा होकर जी लेता वह युवा ही मरता है। वह मौत के आखिरी क्षण में भी युवा होता है। मृत्यु उसे छीन नहीं पाती। क्योंकि जिसे बुढ़ापा ही नहीं छू पाता है, उसे मृत्यु कैसे छू पाएगी।

लेकिन संस्कृति हमारी, भय को ही प्रचारित करती है। हजार तरह के भय खड़े करती है।
सारे पुराने धर्मों ने ईश्वर का भय सिखाया है। और जिसने भी ईश्वर का भय सिखाया है, उसने पृथ्वी पर अधर्म के बीज बोए हैं। क्योंकि भयभीत आदमी धार्मिक हो ही नहीं सकता। भयभीत आदमी धार्मिक दिखाई पड़ सकता है।
भय से कभी किसी व्यक्ति के जीवन में क्रांति हुई है? रूपांतरण हुआ है? पुलिसवाला चौरास्ते पर खड़ा है, इसलिए मैं चोरी न करूं, तो मैं अच्छा आदमी हू! पुलिसवाला हट जाए तो मेरी चोरी अभी शुरू हो जाए।

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