स्त्री को लाना है। भेद हैं, भिनताएं हैं। भिन्नताएं आनंदपूर्ण हैं,
भिन्नताएं दुःख का कारण नहीं हैं। असमानता दुःख का कारण हैं। और असमानता को
हमने भिन्नता के आधार पर...असमानता को इतना मजबूत कर लिया है कि कल्पना के
बाहर है, कि स्त्री और पुरुष मित्र हो सकते हैं। पुरुष को लगता ही नहीं कि
स्त्री और मित्र! मित्र नहीं हो सकती! पत्नी हो सकती है! पत्नी यानी दासी।
और जब वह चिट्ठी लिखती है कि आपकी चरणों की दासी तो पुरुष बड़ा प्रसन्न होता
है पढ़कर। बहुत प्रसन्न होता है। ठीक पत्नी मिल गयी है। ऐसी ही पत्नी होनी
चाहिए।
पुरुषों के ऋषि-मुनि समझाते हैं कि स्त्री परमात्मा माने पुरुष को! पुरुष खुद
ही समझा रहा है कि मुझे परमात्मा मानो!
और स्त्रियों के दिमाग को वह तीन हजार साल से कंडीशंड कर रहा है। और उनके
दिमाग में यह प्रचार कर रहा है कि मुझे यह मानो!
पुरुषों ने किताबें लिखी हैं, जिसमें उन्होंने लिखा है कि स्त्री अगर कल्पना
भी कर ले दूसरे पुरुष की, तो पापिन है! और पुरुष अगर वेश्या के घर भी जाए तो
पवित्र। स्त्री वही है, जो उसे कंधे पर बिठाकर वेश्या के घर पहुंचा दे!
मजेदार लोग है-बहुत मजेदार लोग हैं! और हम...लेकिन यह स्वीकृत हो गया! इसमें
स्त्रियों को भी एतराज नहीं है...यह स्वीकृत हो गया है!
स्रियों को...इतने दिन से प्रोपेगंडा किया गया है उनकी खोपड़ी पर, हेमरिंग की
गयी है कि उन्होंने मान लिया है। बचपन से ही उन्हें नंबर दो की स्थिति
स्वीकार करने के लिए मा-बाप तैयार करते हैं। वह नंबर एक नहीं है। वह नबर दो
है। इसकी स्वीकृति बचपन से उनके मन पर थोपी चली जाती है!
पूरी संस्कृति, पूरी व्यवस्था...कैसे यह छुटकारा हो, कैसे यह स्त्री पुरुष के
समान खड़ी हो सके, बहुत कठिन मामला मालूम पड़ता है।
लेकिन दो-तीन सूत्र सुझाना चाहता हूं। इनके बिना शायद स्त्री पुरुष के समान
खड़ी नहीं हो सकती। और ध्यान रहे, जब तक परिस्थिति नहीं बदलती है...पुरुष
कितना ही कहे कि तुमको भी तो समान हक वोट करने का तुम समान हो। सब बातें ठीक
हैं। असमानता क्या है? इससे कुछ हल नहीं होगा। स्त्री के नीचे होने में, उसके
जीवन की गुलामी में, उसकी असमानता में कुछ कारण हैं। जैसे जब तक स्त्रियों की
अपनी कोई आर्थिक स्थिति नहीं है, जब तक उनकी अपनी
इकॉनामिक अर्थगत, सपत्तिगत अपनी कोई स्थिति नहीं है, तब तक स्त्रियों की
समानता बातचीत की बात होगी। गरीब-अमीर समान है। हम कहते है,. हम कहते हैं,
गरीब-अमीर समान हैं बराबर वोट का हक है। सब ठीक है। लेकिन गरीब-अमीर समान
कैसे हो सकता है? अमीरी और गरीबी इतनी बड़ी असमानता पैदा कर देती है।
और स्त्रियों से ज्यादा गरीब कोई भी नहीं है, क्योंकि हमने उनको बिल्कुल अपंग
कर दिया है कमाने से। पैदा करने से अपंग कर दिया है। वे कुछ पैदा नहीं करतीं।
न वे कुछ कमाती हैं। न वे जिंदगी में आकर बाहर कुछ काम करती हैं। घर के भीतर
बंद कर दिया। उनकी गुलामी का मूल-सूत्र यह है कि वे जब तक आर्थिक रूप से बंधी
है, तब तक वे समान हक में हो भी नहीं सकतीं।
और बुरा है यह। एकदम बुरा है क्योंकि स्त्रियाँ सब तरफ फैल जाएं, सब कामों
में तो पुरुष के सब तरफ कामों में जो पुरुषपन आ गया है, सब शिथिल हो जाए।
फर्क हम जानते है। फर्क बहुत स्पष्ट है। स्त्री के प्रवेश से ही एक और हवा हर
दफ्तर में प्रविष्ट हो सकती है और हो ही जाती है।
एक क्लास, जहां लड़के ही लड़के पढ़ रहे हैं और पुरुष ही पढ़ा रहा है। एक और तरह
की क्लास है। जहां चार लड़कियां भी आकर बैठ गयी है-क्लास की हवा में फर्क पड़
गया है बुनियादी, फर्क पड़ गया है। ज्यादा कोमल, ज्यादा सुगंध में भरी वह हवा
हो गयी है। कम पुरुष, कम कठोर चीजें शिथिल हो गयी हैं और बीज ज्यादा शिष्ट हो
गयी है।
स्त्री को जीवन के सब पहलुओं पर फैला देने की जरूरत है। ऐसा कोई काम नहीं है,
जो कि स्त्रियां न कर सकती हो।
रूस में स्त्रियों को सब काम करके बता दिया है। हवाई जहाज के पायलट होने से,
छोटे-छोटे काम तक। स्त्री ने अंतरिक्ष में उड़कर भी बताया है। वह इस बात की
खबर है कि स्त्रियां करीब-करीब सब काम कर सकती हैं।
कुछ काम होगे, जो एकदम मस्कुलर है। कुछ काम होंगे, अब तो नहीं रह गए। क्योंकि
मस्त का सब काम मशीन करने लगी है। पुराना जमाना गया। कोई शेर-वेर से लड़ने
जाना नहीं पड़ता और गामा वगैरह बनना अब सब बेवकूफी हो गयी है। वह समझ की बाते
नहीं है!
अब तो मस्त का काम मशीन ने कर दिया है, इसीलिए स्त्री को समान होने का पूरा
मौका मिल गया है। मशीन बड़े से बड़ा काम कर देती है। बड़े से बड़ा पत्थर उठा देती
है। बड़े से बड़े वजन को धक्का देती है। अब पुरुष को भी धकाना नहीं पड़ रहा
है। अब कोई जरूरत नहीं है। अब स्त्री प्रत्येक काम मे पुरुष
के साथ खड़ी हो सकती है।
और जैसे ही स्त्री जीवन के सब पहलुओं में प्रविष्ट कर जाएगी, सभी पहलुओं के
वातावरण में बुनियादी फर्क पड़ेगा। और कुछ काम तो ऐसे हैं...अब यह हैरानी की
बात है, ऐसा शायद ही कोई काम अब बचा है पुरुष के पास, जो स्त्री नहीं कर
सकती।
लेकिन कुछ काम ऐमे हैं जो स्त्रियां ही कर सकती हैं और पुरुष नहीं कर सकते
हैं। और उन कामों को भी पुरुष पकड़े हुए हैं। जैसे शिक्षक का काम है। शिक्षक
के काम से पुरुष को हट जाना चाहिए। पुरुष शिक्षक हो ही नहीं सकता। उसका
डिक्टेटोरियल माइंड इतना ज्यादा है कि वह शिक्षक नहीं हो सकता है।
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