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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


और स्त्रियां बाहर जाएं। और निश्चित ही जितना वह बाहर आए उतना ही उनका मन विकसित होने के उपाय पाएगा। जितना बंद घेरे में कोई जिए उतना छोटा मन, उतनी छोटी बुद्धि उतनी सीमा हो जाती है। हम स्त्रियों को कहां जिलाते रहे हैं? बंद घरों में! अब तो थोड़ी-बहुत खिड़कियां हो गयी हैं नहीं तो पुरुष खिडकियां-बिड़कियां नहीं होने देता था।
खिड़की से कोई देख नहीं सकता था उसकी पत्नी को। पत्नी भी खिड़की से बाहर देख सकती है...और ऊबी हुई पत्नी देख ही सकती है। पड़ोस के ऊबे हुए लोग भी देख सकते हैं। खिड़कियां भी नहीं थीं! उन स्त्रियों के ऊपर हमने काले कपड़े भी लादे हुए थे। चेहरा भी नहीं देखने देते थे।
टर्की में कमाल जब हुकूमत में आया तो उसने पहला नियम बनाया कि अब बुर्का ओढ़ना सबसे बडा अपराध है। और कोई स्त्री बुर्का ओढ़े सड़क पर दिखायी नहीं पड़ेगी। तो जबर्दस्ती बुर्के छीनने पड़े। क्योंकि स्त्रियां भी डरती थीं बुर्के छीनने में। वह जो बुर्के छिन गए तो लाखों स्त्रियों के चेहरे देखकर लोग हैरान हो गए। पतियों ने भी अपनी पत्नियों के चेहरे रोशनी में नही देखे थे।
रोशनी में स्त्री देखने के बाबत बड़ा विरोध रहा है। समझदार लोग बड़ा इंकार करते रहे हैं! चेहरे पीले पड़ गए हैं, क्योंकि घर की बंद कोठरियों में जहां न हवा जाती है, न सूरज की किरणें जाती हैं वहां वे बंद थीं। जानवरों की तरह, पशुओं की तरह हमने उन्हें अलग काट रखा था! उनका पता नहीं चलता था-स्त्री का। आज भी कुछ मुल्कों में पता नहीं चलता कुछ समाजों में कि स्त्रिया भी है।
अगर चांद से कोई आदमी उतरे किसी के घर में, और बैठकखाने में जाए तो पता नहीं चलेगा कि इस घर में स्त्रियां भी हैं। स्त्रियां कहीं छिपी हैं दूर कोने मे। उनके किचन, उनके दिन भर जीने की जगह को आप देखेंगे तो घबड़ा जाएंगे। अंधेरे में, धुएं में! रोशनी नहीं, हवा नहीं! और जब बाहर रोशनी हवा में निकले तो बुर्के हैं, पर्दे हैं! सब तरह से ढंकी हुई स्त्रियां! सब तरफ से बंद! बाहर भी कोठरी उसके साथ चल रही है, सड़क पर भी! वह कोठरी में ही बंद हैं।

स्वभावतः इसका परिणाम उनकी चेतना पर पड़ा होगा। मन पर पड़ा होगा। बुद्धि पर पड़ा होगा। शरीर पर पड़ा होगा। और ये ही स्त्रियां मनुष्य को जन्म देंगी। मनुष्य के जीवन को आगे बढ़ाएंगी। तो निश्चित ही इसका सारा परिणाम पूरी मनुष्यता पर पड़ने वाला है। नहीं स्त्रियों को बाहर...लेकिन पुरुष डरता है स्त्रियों को बाहर लाने में। डर उसका बहुत गहरा है।
सबसे बड़ा डर तो उसका मालकियत का डर है। क्योंकि पुरुष ने एक मालकियत बनाकर रखी है और वह मालकियत टूट सकती है। स्त्रियां बाहर आएं
तो मालकियत टूट सकती है। स्त्रियां बाहर आएं तो उन्हें और पुरुष भी परमात्मा जैसे लग सकते हैं अपने पुरुष को छोड़ कर। वह डर की बात है, वह घबड़ाने की बात है, इसलिए उन्हें बंद रखना ही जरूरी है। लेकिन इतना बल इतनी जिल्लत, इतना ईर्ष्यालु जो व्यवस्था है, वह हिंसक हो ही जाएगी। वह घबड़ाने वाली हो ही जाएगी।

और इसके परिणाम...अगर हम मनुष्य के मन को थोड़ा खोजें, उसके रोगों को खोजें, सी्त्री या पुरुषों के तो हम हैरान हो जाएंगे। सौ में से पचहत्तर मानसिक रोग किसी न किसी सेक्यूअल जैलिसी से, कामुक ईर्ष्या से जुड़े हुए हैं और वह जो हमने व्यवस्था बनायी है, उसमें होंना बिछल अनिवार्य मालूम पड़ता है। यह सारा तोड़ देना आवश्यक है। यह पहली बात मैंने कही।
स्त्री की आर्थिक व्यवस्था उसके हाथ में होनी चाहिए।
और अगर घर में भी स्त्री काम करे-घर में भी स्त्री अगर काम करती हो तो उसके काम का मूल्यांकन होना चाहिए। वह बिना मूल्य नहीं हो जाना चाहिए।

एक आदमी जूते बना रहा है तो उसकी तीन सौ रुपए महीने की हैसियत है आपके घर में। और एक स्त्री उसकी चौबीस घंटे काम कर रही है, उसका कोई आर्थिक मूल्यांकन नहीं है कि वह कितना आर्थिक काम कर रही है। ऐसा लगता है कि वह कुछ भी नहीं कर रही है। पुरुष सोचता है, सब हम कर रहे हैं। हम तुम्हें पाल रहे हैं हम तुम्हें पालने वाले हैं। और उससे ज्यादा काम-काम नहीं, स्त्री किए चली जा रही है। अगर स्त्री घर में भी काम करती है तो उसका आर्थिक मूल्यांकन होना चाहिए। अगर बाहर ला सकें हम स्त्री को तो बड़ा सुखद होगा। काम बढ़े। उसकी बुद्धि बढ़े। उसका विकास बढ़े।
निश्चित ही, बाहर लाते ही हमारे परिवार का ढांचा बदलना पड़ेगा। विवाह की व्यवस्था बदलनी पड़ेगी। पुराने ढंग बहुत-से बदल देने पड़ेंगे। स्त्री-पुरुष करीब आएंगे तो ढंग हमें नए करने पड़ेंगे। लेकिन वे ढंग नए किए जाने अशुभ नहीं हैं। वे शुभ होंगे, वे अत्यत शुभ होंगे।
तीसरी बात-निरंतर जिन देशों में भी, जिन समाजों ने भी स्त्री को नीचा किया है, उन देशों और समाजों में स्त्री को नीचा करने का एक बुनियादी कारण उस देश के साधु संत महात्मा रहे हैं। वह समझाते हैं कि स्त्री नरक का द्वार है।
असल में साधु-संत स्त्री से बहुत डरे हुए लोग होते हैं। स्त्री से उनको बहुत डर लगता है। क्योंकि वही उनको भगवान से भी ज्यादा ताकतवर मालूम पड़ती है, खींच सकती है अपनी तरफ। वह उसकी वजह से इतने घबड़ाए रहते हैं कि रात-दिन स्त्री के सपने ही देखते हैं। और उसको गालियां देते हैं। नरक का द्वार बताते हैं। आपको नहीं वह अपने को समझा रहे हैं कि स्त्री नरक का द्वार है। सावधान! बचना! स्त्री की तरफ देखना भी मत।
यह इन घबड़ाए हुए भागे हुए एस्कैपिस्ट, पलायनवादी लोगो ने स्त्री को समझने स्त्री को आदृत होने, सम्मानित होने, साथ खड़े होने का मौका नहीं दिया।
अभी जब मैं बंबई था कुछ दिन पहले, एक मित्र ने आकर मुझे खबर दी कि एक बहुत बड़े संन्यासी वहां प्रवचन कर रहे हैं। आपने उनके प्रवचन सुने होंगे, नाम तो सुना ही होगा। वह प्रवचन कर रहे हैं। भगवान की कथा कर रहे हैं! या कुछ कर रहे हैं, स्त्री नहीं छू सकती उन्हें! एक स्त्री अजनबी आयी होगी! उसने उनके पैर छू लिए! तो महाराज भारी कष्ट में पड़ गए हैं! अपवित्र हो गए हैं! उन्होंने सात दिन का उपवास किया है शुद्धि के लिए! जहा दस-पंद्रह हजार सिया पहुंचती थी, वहां सात दिन के उपवास के कारण एक लाख स्त्रिया इकट्ठी होने लगी कि यह आदमी असली साधु है!
स्त्रियां भी यही सोचती हैं कि जो उनके छूने से अपवित्र हो जाएगा, असली साधु है। हमने उनको समझाया हुआ है। नहीं तो वहां एक स्त्री भी नहीं जानी थी फिर। क्योंकि स्त्री के भारी अपमान की बात है।

लेकिन अपमान का खयाल ही मिट गया है। लंबी गुलामी अपमान के खयाल मिटा देती है। लाख स्त्रियां वहां इकट्ठी हो गयी हैं! सारी बंबई में यही चर्चा है कि यह आदमी है असली साधु! स्त्री के छूने से अपवित्र हो गया है! सात दिन का उपवास कर रहा है! उन महाराज से पूछना चाहिए पैदा किससे हुए थे? हड्डी, मांस, मज्जा किसने बनाया था? वह सब स्त्री से लेकर आ गए हैं। और अब अपवित्र होते हैं स्त्री के छूने से!

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