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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...



15

सिद्धांत, शास्त्र और वाद से मुक्ति

मेरे प्रिय आत्मन,

अभी-अभी सूरज निकला। सूरज के दर्शन कर रहा था। देखा आकाश में दो पक्षी उड़े जा रहे हैं। आकाश में न तो कोई रास्ता है, न कोई सीमा है, न कोई दीवाल है, न उड़नेवाले पक्षियों के कोई चरण-चिह्न बनते हैं। खुले आकाश में जिनकी कोई सीमाएं नहीं, उन पक्षियों को उड़ता देखकर मेरे मन में एक सवाल उठा : क्या आदमी की आत्मा भी इतने ही खुले आकाश में उड़ने की मांग नहीं करती? क्या आदमी के प्राण भी इतने नहीं तड़पते हैं, सारी सीमाओं के ऊपर उठ जाने के लिए-सारे बंधन तोड़ देने के लिए? सारी दीवालों के पार-वहां, जहां कोई दिवाल नहीं, वहां जहां कोई फासले नहीं; वहां जहां कोई रास्ते नहीं; वहां, जहां कोई चरण-चिह्न नहीं बनते-उस खुले आकाश में उठ जाने को मनुष्य की आत्मा की भी क्या प्यास नहीं है?

उस खुले आकाश का नाम है, परमात्मा। लेकिन अभी तो पैदा होते ही बंधनों में बंधने लगता है। चाहे पैदा कोई स्वतंत्र होता हो, लेकिन बहुत कम सौभाग्यशाली लोग हैं, जो स्वतंत्र जीते हैं; और बहुत कम सौभाग्यशाली लोग हैं, जो स्वतंत्र होकर मर पाते हैं। आदमी पैदा तो स्वतंत्र होता है, और फिर निरंतर परतंत्र होता चला जाता है। किसी आदमी की आत्मा परतंत्र नहीं होना चाहती; फिर
भी आदमी परतंत्र होता चला जाता है!

...तो ऐसा प्रतीत होता है कि शायद हमने परतंत्रता की बेड़ियों को फूलों से सजा रखा है; शायद हमने परतंत्रता को स्वतंत्रता के नाम दे रखे हैं; शायद हमने कारागृहों को मंदिर समझ रखा है। और इसलिए यह संभव हो सका है कि प्रत्येक आदमी के प्राण स्वतंत्र होना चाहते हैं पर प्रत्येक आदमी परतंत्र ही जीता है और परतंत्र ही मरता है! बल्कि, ऐसा भी दिखाई पड़ता है कि हम अपनी परतंत्रता की रक्षा भी करते हैं! अगर परतंत्रता पर चोट हो, तो हमें तकलीफ भी होती है, पीड़ा भी होती है! अगर कोई परतंत्रता हमारी तोड़ देना चाहे, तो वह हमे दुश्मन भी मालूम होता है!
परतंत्रता से आदमी का ऐसा प्रेम क्या है?

...नहीं परतंत्रता से किसी का भी प्रेम नहीं है। लेकिन परतंत्रता को हमने स्वतंत्रता के शब्द और वस्त्र ओढ़ा रखे हैं। एक आदमी अपने को हिंदू कहने में जरा भी ऐसा अनुभव नहीं करता कि मैं अपनी गुलामी की सूचना कर रहा हूं। एक आदमी अपने को मुसलमान कहने में जरा भी नहीं सोचता कि मुसलमान होना मनुष्यता के ऊपर दीवाल बनानी है। एक आदमी किसी बात में, किसी संप्रदाय में, किसी देश में अपने को बांधकर कभी ऐसा नहीं सोचता कि मैंने अपना कारागृह अपने हाथों से बना लिया है। बड़ी चालाकी, बड़ा धोखा आदमी अपने को देता रहा है। और सबसे बड़ा धोखा यह है कि हमने कारागृहों को सुंदर नाम दे दिए हैं हमने बेड़ियों को फूलों से सजा दिया है; और जो हमें बांधे हुए हैं उन्हें हम मुक्तिदायी समझ रहे हैं!

यह मैं पहली बात आज आपसे कहना चाहता हूं कि जो लोग भी अपने जीवन में क्रांति लाना चाहते हैं सबसे पहले उन्हें यह समझ लेना होगा कि बंधा हुआ आदमी कभी भी जीवन की क्रांति से नही गुजर सकता। और हम सारे ही लोग बंधे हुए लोग हैं। यद्यपि हमारे हाथों में जंजीरें नहीं हैं हमारे पैसे में बेड़ियां नही हैं; लेकिन हमारी आत्माओं पर बहुत जंजीरें हैं बहुत बेड़ियां हैं। और पैसे में बेड़ियां पड़ी हों, तो दिखायी भी पड़ जाती हैं पर आत्मा पर जंजीरें पडी हों, तो दिखायी भी नहीं पड़ती। अदृश्य बंधन इस बुरी तरह बांध लेते हैं कि उनका पता भी नहीं चलता। और जीवन हमारा एक कैद बन जाता है। और वे अदृश्य बंधन है-सिद्धांतों के, शास्त्रों के और शब्दों के।

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