यह तो मैंने कहानी सुनी थी। ठीक ऐसी ही कहानी अभी मेरे साथ हो गयी है दिल्ली
में, वह आप लोगों को बताऊं।
एक महिला आयी और मुझसे उसने पूछा, ''मैं यही ठहर जाऊं आपके पास?'' मैंने कहा,
''बिल्कुल ठहर जाओ।''
मुझे पता नही था कि मनुभाई पटेल को बड़ी तकलीफ हो जाएगी इस बात से। अगर मुझे
पता होता तो संसद-सदस्य को मैं तकलीफ नहीं देता। मैं किसी को तकलीफ नहीं देना
चाहता। कहता, ''देवी, तुम्हारे ठहरने से मुझे तकलीफ नहीं है, लेकिन मनु भाई
पटेल को, बड़ौदा वालों को तकलीफ हो जाएगी। और किसी को तकलीफ देना अच्छा नहीं
है। तो तुम्हें ठहरना है तो जाओ, मनुभाई के कमरे में ठहर जाओ; यहां मेरे पास
किसलिए ठहरती हो।''
लेकिन मुझे पता ही नहीं था। पता होता तो यह भूल न होती। यह भूल हो गयी अज्ञान
में। वह आकर सो गई मेरे कमरे में, लेकिन दूसरे दिन बड़ी तकलीफ हो गयी। मुझे
पता चला कि मनुभाई को और उनके मित्रों को बहुत कष्ट हो गया है इस बात से कि
मेरे कमरे में वह सो गयी। मैं तो हैरान हुआ कि वह मेरे कमरे में सोयी, तकलीफ
उनको हो गयी!
लेकिन आदमी कंधे पर उन चीजों को ढोने लगता है, जिनको लेकर उसके भीतर कोई लड़ाई
जारी रहती है। पता नहीं चलता ख्याल में नहीं आता कि यह सब भीतर क्या हो रहा
है। तो मैंने सोचा कि वह मनुभाई मुझे मिलें तो उनसे कहूं कि 'सर, यू आर स्टिल
कैरिंग हर आन योर शोल्डर?' अभी भी ढो रहे हैं उस औरत को अपने कंधों पर? मैंने
उनको वहीं दिल्ली में कहा कि मनुभाई, पीछे तकलीफ होगी। पीछे यह बात चलेगी,
मिटने वाली नहीं है। तो यह बात अभी कर लें सबके सामने। तो उन्होंने कहा,
''क्या बात करनी है; कुछ हर्जा नहीं; जो हो गया हो गया।''
लेकिन मैं जानता था बात तो उठेगी; बात तो करनी ही पड़ेगी। फिर वे संसद-सदस्य
हैं। संसद-सदस्य को मुझ जैसे फकीरों के आचरण का ध्यान रखना चाहिए नहीं तो
मुल्क का आचरण बिगाड़ देंगे।
और फिर ऐसे संसद-सदस्य हैं इसलिए तो मुल्क का आचरण इतना अच्छा है, नहीं तो
कभी-भी बिगड़ जाता। धन्यभाग है हमारे मृतक का आचरण कितना अच्छा है, अच्छे
संसद-सदस्यों के कारण! जो पता लगाते हैं कि किसके कमरे में कौन सो रहा है!
इसका हिसाब रखते हैं! ये लोक-सेवक हैं! लोक-सेवक ऐसा ही होना चाहिए। मुझे तो
जैसे खबर मिली, मैने सोचा कि इस बार इलेक्शन के वक्त अगर मुझे वक्त मिला तो
जाऊंगा बड़ौदा में, लोगों से कहूंगा कि मनुभाई
को ही वोट देना, इस तरह के लोगों की वजह से देश का चरित्र ऊंचा है।
लेकिन यह जो दिमाग है, यह दिमाग कहां से पैदा होता है? यह दिमाग कहां से आता
है? यह भीतर क्या छिपा हुआ है...?
यह भीतर है, दमन की लंबी परंपरा। यह एक आदमी का सवाल नहीं है। यह हमारे पूरे
जातीय संस्कार का सवाल है; यह मनुभाई का सवाल नहीं है। वह तो प्रतिनिधि
है-हमारे और आपके; हमारी सब बीमारियों, के-वह जौ हमारे भीतर छिपा है, उसके।
हमारे भीतर क्या छिपा है...?
हमने एक अजीब सप्रेशन की धारा में अपने को जोड़ रखा है! दबा रहे है सब! वह
दबाया हुआ घाव हो जाता है। वह घाव पीड़ा देता है। उस घाव की वजह से हमें बाहर
वही-वही दिखायी पड़ने लगता है, जो-जो हमारे भातर है। सारा जगत एक दर्पण बन
जाता है।
यह सप्रशेन की लंबी धारा, यह दमन की लंबी यात्रा व्यक्तित्व को नष्ट करती है।
इसने जीवन के स्रोतों को पॉयजन से भर दिया है, जहर से भर दिया है। जीवन के
सारे स्रोत विकृत और कुरूप हो गए हैं। इसलिए यह तीसरा सूत्र आपसे कहना चाहता
हूं कि दमन से बचना।
अगर जीवन को और सत्य को जानना हो, और कभी प्रभु के, परमात्मा के द्वार पर
दस्तक देनी हो, तो दमन से बचना।
वयोंकि दमन करने वाला चित्त परमात्मा तक कभी नहीं पहुंचता। वह वही रुक जाता
है, जहां दमन करता है। उसको वहीं ठहरना पड़ता है, क्योंकि जरा-सा भी हटा कि
दमन उखड़ जाएगा और जिसको दबाया है, वह प्रकट होना शुरू हो जाएगा।
अगर आप एक आदमी की छाती पर सवार हो गए हैं तो फिर आप उसको छोड़कर नहीं जा
सकते, क्योंकि छोड़कर आप जैसे ही गए कि वह आपके ऊपर हमला कर देगा। अगर किसी
आदमी की छाती पर आप सवार हो गए तो आप समझना कि जितना आपने उसे दबा रखा है,
उससे भी ज्यादा आप उससे दब गए हैं! क्योंकि आप छोड़कर उससे नहीं हट सकते।
मनुष्य जिन चीजों को दबा लेता है, उन्हीं के साथ बंध जाता है। वह उनको छोड़कर
हट नहीं सकता और कहीं भी नहीं जा सकता। इसलिए दमन से अकसर साधक को सावधान
रहना चाहिए।
दमन पैदा करेगा-पागलपन विक्षिप्तताएं इंफिरिअरिटी।
जितने मनस-चिकित्सक हैं उनसे पूछिए वे क्या कहते हैं। वे कहते हैं सारी
दुनिया पागल हुई जा रही है, दमन के कारण। पागलखाने मे सौ आदमी बंद हैं, उनमें
अट्ठानबे आदमी दमन के कारण बंद हैं जिन्होंने बहुत जोर से दबा लिया है। एक
विस्फोट की आग को भीतर रख लिया है। वह विस्फोट फूटना चाहता है, वह सारे
व्यक्तित्व को किसी दिन तोड़ देता है; किसी दिन खंड-खंड बिखेर देता है सारे
मकान को। एक दिन आदमी बिखर कर, टूट कर खड़ा हो जाता है।
इसलिए, जितना आदमी सभ्य होता चला जा रहा है, उतना ही पागल होता जा रहा है,
क्योंकि सभ्यता का सूत्र दमन है। नहीं स्वभाव को अगर जानना है, तो दमन से वह
नहीं जाना जा सकता। लेकिन तब आप पूछेंगे कि जब क्रोध आए तो क्रोध करना चाहिए?
वासना आए तो वासना भोगनी चाहिए? क्या आप लोगों को वासना में डूब जाने के लिए
कहते हैं..,? बिल्कुल नहीं जरा भी नहीं कहता हूं। दमन से बचने को कह रहा हूं
अभी भोग करने को नहीं कह रहा हूं।
अभी एक सूत्र समझ ले, कल दूसरे सूत्र की बात करेंगे।
दमन से बचने का उार्थ : भोग में कूद जाना नहीं है। अनिवार्यरूपेण वही एक
आल्टरनेटिव नहीं है। और विकल्प भी हैं। उस विकल्प पर हम कल बात करेंगे। इसलिए
जल्दी से नतीजा लेकर घर मत लौट जाना। मेरी बातों से जल्दी नतीजा नहीं लेना
चाहिए नहीं तो बड़ी मुश्किल हो जाती है।
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