दमन नहीं, खुद के व्यक्तित्व से संघर्ष नहीं ख्रुद के व्यक्तित्व से द्वंद्व
नहीं-क्योंकि खुद के व्यक्तित्व से द्वंद्व का अर्थ है, जैसे मैं अपने दोनों
हाथों को आपस में लड़ाने लग। कौन जीते, कौन हारे, दोनों हाथ मेरे हैं! दोनों
हाथी के पीछे लड़नेवाली शक्ति मेरी है! दोनों हाथों के पीछे मैं हूं। कौन
जोतेगा...?
कोई नहीं जीत सकता। मेरे ही दोनों हाथों की लड़ाई में कोई नहीं जीत सकता;
क्योंकि जीतनेवाले दो हैं ही नहीं। लेकिन एक अद्भुत घटना घट जाएगी। जीतेगा तो
कोई नहीं-न बायां, न दायां, लेकिन मैं हार जाऊंगा दोनों की लड़ाई में; क्योंकि
मेरी शक्ति दोनों के साथ नष्ट होगी।
और, मैं हार जाऊं या शक्ति को क्षीण होने दूं-जो भी दमन कर रहा है, वह किसका
दमन कर रहा है...? अपना ही; अपने ही चित्त के खंडों को दबा रहा है। किससे दबा
रहा है...? चित्त के दूसरे खंडो से दबा रहा है। चित्त के एक खंड से चित्त के
दूसरे खंड को दबा रहा है। खुद को ही, खुद से दबा रहा है!
ऐसा आदमी अगर पागल हो जाए अंतत; तो आश्चर्य ही क्या है। वह तो आदमी पागल नहीं
हो पाता, क्योंकि दमन सिखाने वालों की बात पूरी तरह से कोई भी नहीं मानता है
नहीं तो सारी मनुष्यता पागल हो जाती। वह दमन सिखाने वालों
की बात पूरी तरह से कोई नहीं मानता है। और न मानने की वजह से थोड़ा-सा रास्ता
बचा रहता है कि आदमी बच जाता है।
और न मानने की वजह से, ऊपर से दिखलाता है कि मानता हूं, भीतर से पूरा मानता
नहीं ऊपर से दिखलाता है कि मानता हूं, इसलिए पाखंड और हिपॉक्रिसी पैदा होती
है। हिपॉक्रिसी दमन की सगी बहन। वह जो पाखंड है, वह दमन का चचेरा भाई है। दमन
चलेगा तो पाखंड पैदा होगा।
अगर पाखंड पैदा न होगा तो पागलपन पैदा होगा। पागलपन से बचना हो तो पाखंडी हो
जाना पड़ेगा। दुनिया को दिखाना पड़ेगा ब्रह्मचर्य और पीछे से वासना के रास्ते
खोजने पड़ेंगे। दुनिया को दिखाना पड़ेगा कि मेरे लिए तो धन मिट्टी है और भीतर
गुप्त मार्गों से तिजोरियां बंद करनी पड़ेगी। वह भीतर से चलेगा।
लेकिन यह पाखंड बचा रहा है आदमी को, नहीं तो आदमी पागल हो जाए। अगर सीधा-सादा
आदमी दमन के चक्कर में पड़ जाए तो पागल हो जाए।
ये साधु-संन्यासी बहुत बड़े अंश में पागल होते देखे जाते हैं इसका कारण आपको
मालूम है?
लोग समझते हैं भगवान का उन्माद छा गया है। भगवान का कोई उन्माद नहीं होता; सब
उन्माद भीतर के दमन से पैदा होते हैं। भीतर दमन बहुत हो तो रोग पैदा हो जाता
है, उन्माद पैदा हो जाता है, पागलपन पैदा हो जाता है।
लेकिन उसको हम कहते हैं-हर्षोंमाद, एक्सटेसी! वह एक्सटेसी वगैरह नहीं है,
मैडनेस है।
या तो आदमी पूरा दमन करे तो पागल होता है, या फिर पाखंड का रास्ता निकाल ले
तो बच जाता है।
और पाखंडी होना पागल होने से अच्छा नहीं है। पागल में फिर भी एक सिंसेरिटि
है, पागल में फिर भी एक निष्ठा है; पाखंडी की तो कोई निष्ठा नहीं होती; कोई
नैतिकता कोई ईमानदारी नहीं होती।
अपने से नहीं लड़ना है। आप अपने से लड़े कि आप गलत रास्ते पर गए। अपने से लड़ना
अधार्मिक है।
दमन 'मात्र अधार्मिक' है।
दमन मात्र ने मनुष्य को जितना नुकसान पहुंचाया है, उतना दुनिया में और किसी
शत्रु ने कभी नहीं पहुंचाया। उस दिन ही मनुष्य पूरी तरह स्वस्थ होता है, जिस
दिन सारे दमन से मुक्त हो जाता है; जिस दिन उसके भीतर कोई कांफ्लिक्ट, कोई
द्वंद्व नहीं होता। जिस दिन भीतर द्वंद्व नहीं होता है, उस दिन एक दर्शन होता
है, जो भीतर है।
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