अगर ठीक से समझें, तो दमन मनुष्य को विभक्त करता है; डिव्हाइड करता है। दमन
जिस व्यक्ति के भीतर होगा, वह इनडिवीजुअल नहीं रह जाएगा, वह व्यक्ति नहीं रह
जाएगा; वह विभक्त हो जाएगा उसके कई टुकड़े हो जाएंगे; वह स्कीजोफ्रेनिक हो
जाएगा। दमन न हो व्यक्ति में तो योग की स्थिति उपलब्ध होती है।
योग का अर्थ है-जोड़; योग का अर्थ है-इटिंग्रेट योग का अर्थ है-अखंडता, एक।
लेकिन एक कौन हो सकता है? एक व्यक्ति किसका हो सकता है?
उसका जो लड़ नहीं रहा है; उसका जो अपने को खंड-खंड नहीं तोड़ रढ़ा है; जो अपने
भीतर नहीं कह रहा है-यह बुरा है, यह अच्छा है; इसको बचाऊगा, उसको छोडूंगा।
जिसने भी अपने भीतर बुरे-अच्छे का भेद किया, वह दमन में पड़ जाएगा।
दमन से बचने का सूत्र है; अपने भीतर जो भी है, उसकी पूर्ण स्वीकृति, टोटल
एक्सप्टेबिलिटि।
जो भी है; सेक्स है, लोभ है, क्रोध है, मान है-जो भी है भीतर, उसकी सर्वांगीण
स्वीकृति प्राथमिक बात है। तो व्यक्ति आत्मज्ञान की तरफ विकसित होगा।
अगर उसने अस्वीकार किया-कि मैं अस्वीकार करता हूं-उसने कहा कि मैं लोभ को
फेंक दूंगा-उसने कहा कि मैं क्रोध को फेंक दूंगा-तो फिर वह कभी भी शांत नहीं
हो पाएगा; इस फेंकने में ही अशांत हो जाएगा।
और, इसलिए तो संन्यासी जितने क्रोधी और अहंकारी देखे जाते हैं उतने साधारण
लोग क्रोधी नहीं होते! संन्यासी का क्रोध और अहंकार बहुत अद्भुत है। दुर्वासा
की कथाएं तो हम जानते हैं।
संन्यासी में इतना अहंकार कि दो संन्यासी एक-दूसरे को मिल नहीं सकते; क्योंकि
कौन किसको पहले नमस्कार करेगा! दो संन्यासी एक साथ बैठ नहीं सकते; क्योंकि
किसका तख्त ऊंचा होगा और किसका नीचा होगा! ये संन्यासी नहीं, पागल हैं। जो
तख्त की ऊंचाई नापने में लगे हुए हैं, उन्हें परमात्मा की ऊंचाई का पता भी
क्या होगा।
मैं कलकत्ते में एक सर्वधर्म सम्मेलन में बोलने गया था। वही कई तरह के
संन्यासी कई धर्मों के उन्होंने आमंत्रित किए थे। उन संयोजकों को क्या पता
बेचारों को कि सब संन्यासी एक मंच पर नही बैठेंगे। कोई उसमें शंकराचार्य हो
सकते हैं वे अपने सिंहासन पर बैठेंगे। और शंकराचार्य सिंहासन पर बैठे तो
दूसरा आदमी कैसे नीचे बैठ सकता है! संयोजकों ने मुझे आकर कहा कि सबकी खबरें आ
रही हैं कि हमारे बैठने का इंतजाम क्या है?
बच्चों-जैसी बात मालूम पड़ती है। जैसे, छोटे-छोटे बच्चे कुर्सी पर खड़े हो जाते
हैं और आप अपने बाप से कहते हैं, 'तुम मुझसे नीचे हौ।' बच्चों से ज्यादा
बुद्धि इनकी नहीं मालूम पड़ती है। तख्त ऊँचा-नीचा रखने से ज्यादा उनकी बुद्धि
नहीं है, तख्त नीचा हो जाएगा तो हम नीचे हो जाएंगे। हद हो गयी, इस भांति से
ऊंचा होना बहुत आसान हो गया!
लेकिन दबा रहे हैं अहंकार को। तो अहंकार दूसरे रास्ते खोज रहा है निकलने के
लिए। अहंकार को दबा रहे हैं इधर कह रहे हैं, 'मैं कुछ भी नहीं हूं! हे
परमात्मा, मैं तो तेरी शरण में हूं।' उधर अहंकार कह रहा है-अच्छा ठीक है
बेटे, उधर तुम शरण में जाओ, इधर हम दूसरा रास्ता खोजते हैं। हम कहते हैं कि
सोने का सिंहासन चाहिए क्योंकि हमसे ज्यादा भगवान की शरण में और कोई भी नहीं
गया है!
तो इनको सोने का सिंहासन चाहिए। इधर-'मैं कुछ भी नहीं हूं, आदमी तो कुछ भी
नहीं है, सब संसार माया है! और उधर?-उधर, अगर जगतगुरु न लिखें उनके नाम के
आगे तो वे नाराज हो जाते हैं कि मुझे जगतगुरु नही लिखा!'
...और मजा यह है कि जगत से पूछे बिना ही गुरु हो गए हैं? जगत से भी पूछ लिया
होता, यह जगत बहुत बड़ा है...!
एक गांव में मैं गया था। वहां भी एक जगतगुरु थे!
...जगतगुरुओं की कोई कमी है! जिसको भी खयाल पैदा हो जाए वह जगतगुरु हो सकता
है! इस वक्त सबसे सस्ता काम यही है...!
गांव में जगतगुरु थे। मैंने पूछा, ''इतना छोटा-सा गांव, जगतगुरु कहां से
आए?'' उन्होंने कहा, ''वे यहां ही रहते हैं सदा से।'' मैंने कहा, ''जगत से
पूछ लिया है उन्होंने?'' उन्होंने कहा, ''जगत से नहीं पूछा। लेकिन वे बहुत
होशियार आदमी हैं। उनका एक शिष्य है।'' मैंने कहा, ''और कितने हैं?''
उन्होंने कहा, ''बस एक ही है। लेकिन उसका नाम उन्होंने जगत रख लिया है। तो वे
जगतगुरु हो गए हैं।''
बिल्कुल ठीक बात है। अब और कोई कमी नहीं रह गई है। अदालत में मुकदमा नहीं चला
सकते हैं इस आदमी पर। यह जगतगुरु है। सारे जगतगुरु इसी तरह के हैं। किसी का
एक शिष्य होगा, किसी के दस होंगे लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। इधर वे कहते
हैं, ''मैं तो कुछ भी नहीं आदमी तो माया है; असली तो ब्रह्म है-एक ही ब्रह्म
है और उधर जगतगुरु होने का लोभ सवार हो जाता है!
वह अहंकार, इधर से बचाओ, उधर से रास्ता खोजता है।
आदमी जिस-जिस को दबाएगा, वही-वही उसे नए-नए मार्गों से प्रगट होगा।
दमन करके कभी कोई किसी चीज को नहीं समझ सका। इसलिए दमन से बचना है, दमन से
सावधान रहना है। दमन ही मनुष्य को तोड़ता है। और, अगर जुड़ना है, और एक हो जाना
है, तो दमन से बच जाना चाहिए।
चौथे सूत्र पर मैं आपसे कल बात करूंगा कि जब हम दमन से बचेंगे तो फिर भोग
एकदम से निमंत्रण देगा कि आओ; अब तो क्रोध से बचना नहीं है, इसलिए आओ, क्रोध
करो; अब तो सेक्स से बचना नहीं है, इसलिए आओ और सेक्स में डूबो; अब तो लोभ से
बचना नहीं है, इसलिए दौड़ो और रुपए इकट्ठे करो। जैसे ही हम इस दमन से बचेंगे,
वैसे ही भोग निमंत्रण देगा कि आ जाओ।
उस भोग से बचने के लिए भी क्या करना है, उसकी कल के सूत्र में आपसे बात
करूंगा।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं और
अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार
करें।
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