न भोग, न दमन-वरन् जागरण
मेरे प्रिय आत्मन,
तीन सूत्रों पर हमने बात की है।
जीवन क्रांति की दिशा में पहला सूत्र था-'सिद्धांतों से, शास्त्रों से
मुक्ति।'
जो व्यक्ति किसी भी तरह के मानसिक कारागृह में बंद है, वह जीवन की, सत्य की,
खोज नहीं कर सकता है। और वे लोग जिनके हाथों में जंजीरें हैं उतने बड़े गुलाम
नहीं हैं जितने वे लोग जिनकी आत्मा पर विचारों की जंजीरें हैं; वादों,
सिद्धांतों, संप्रदायों की जंजीरें हैं। आदमी की गुलामी मानसिक है।
दूसरा सूत्र था :'भीड़ से मुक्ति।'
भीड़ की आंखों में अपने प्रतिबिंब से बचिए पब्लिक ओपीनियन से बचिए। वह दूसरी
जंजीर है।
आदमी जीवन भर यही देखता रहता है कि दूसरे मेरे संबंध में क्या सोचते हैं! और
दूसरे मेरे संबंध में ठीक सोचें, इस भांति का अभिनय करता रहता है! ऐसा
व्यक्ति अभिनेता ही रह जाता है। ऐसे व्यक्ति के जीवन में चरित्र जैसी कोई बात
नहीं होती। ऐसा व्यक्ति बाहर से अभिमानी हो जाता है, भीतर की आत्मा से उसका
कभी संबंध नहीं होता।
और, तीसरा सूत्र था, 'दमन से मुक्ति।'
वे, जो अपने चित्त को दबाते हैं, वे अपने ही जीवन को नष्ट कर लेते हैं। जिस
बात को दबाते हैं उसी बात से बंधे रह जाते हैं।
अगर धन से छूटने की कोशिश करते हैं, लोभ को दबाते हैं तो वे फौरन लोभी हो
जाते हैं। अगर काम को, सेक्स को दबाते हैं तो कामुक हो जाते हैं। आदमी जिसको
दबाता है, वही हो जाता है; यह कल के सूत्र पर बात हुई थी।
आज चौथे सूत्र पर बात करनी है।
इसके पहले कि हम चौथे सूत्र को समझें, दमन के संबंध में कुछ और बातें समझ
लेनी आवश्यक हैं।
मनुष्य को पता ही नहीं चलता कि जन्म के साथ ही दमन शुरू हो जाता है! हमारी
सारी शिक्षा सारी संस्कृति सारी सभ्यता दमन लाती है। जगह-जगह मनुष्य पर रोक
है! समझाया जाता है, क्रोध मत करो!' लेकिन अगर क्रोध नहीं किया तो क्रोध भीतर
सरक जाएगा। तब उसका क्या होगा? अगर क्रोध को पी गए तो वह खून में मिल जाएगा,
हड्डी तक में चिपक जाएगा; तब रुस क्रोध का क्या होगा...?
क्रोध को दबा लेने से क्रोध का अंत नहीं होता। दबा हुआ क्रोध भीतर प्राणों
में लिप्त हो जाता है। निकला हुआ क्रोध तो थोड़ी देर का साथी होता है, लेकिन
दबा हुआ क्रोध जीवनभर के लिए साथी हो जाता है। क्रोध को दबाया कि पूरा
व्यक्तित्व क्रोध से भर जाता है। लेकिन बच्चों को सिखाया जा रहा है-'क्रोध मत
करना!' ऐसी ही सारी बातें सिखायी जाती हैं लेकिन कोई भी क्रोध से मुक्त नहीं
हो पाता।
एक पूर्णिमा की रात में एक छोटे-से गांव में, एक बडी अद्भत घटना घट गई। कुछ
जवान लड़कों ने शराबखाने में जाकर शराब पी ली औरँ जब वे शराब के नशे में
मदमस्त हो गए और शराबघर से बाहर निकले तो चांद की बरसती चांदनी में उन्हें
खयाल आया कि नदी पर जाएं और नौका-विहार करें।
रात बड़ी सुंदर और नशे से भरी हुई थी। वे गीत गाते हुए नदी के किनारे पहुंच
गए। नाव वहां बंधी थी। मछुए नाव बांध कर घर जा चुके थे। रात आधी हो गयी थी।
वे एक नाव में सवार हो गए। उन्होंने पतवार उठा ली और नाव खेना शुरू किया। फिर
वे रात देर तक नाव खेते रहे। सुबह की ठंडी हवाओं ने उन्हें सचेत किया। जब
उनका नशा कुछ कम हुआ तो उनमें से किसी ने पुछा, ''कहां आ गए होंगे अब तक।
आधीरात तक हमने यात्रा की न-मालूम कितनी दूर तक निकल आए होंगे। नीचे उतरकर
कोई देख ले कि किस दिशा में हम चल रहे हैं, कहां पहुंच रहे हैं?''
जो नीचे उतरा था, वह नीचे उतर कर हंसने लगा। उसने कहा, ''दोस्तो! तुम भी उतर
आओ। हम कहीं भी नहीं पहुंचे हैं। हम वहीं खड़े हैं, जहां रात नाव खड़ी थी।''
वे बहुत हैरान हुए। रात भर उन्होंने पतवार चलायी थी और पहुंचे कही भी नहीं
थे! नीचे उतर कर उन्होंने देखा तो पता चला नाव की जंजीरें किनारे सें बधी रह
गयी थी उन्हें वे खोलना भूल गए थे!
जीवन भी, पूरे जीवन नाव खेने पर, पूरे जीवन पतवार खेने पर कही पहुचता हुआ
मालूम नहीं पड़ता। मरते समय आदमी वहीं पाता है स्वयं को, जहां वह जन्मा था!
ठीक उसी किनारे पर, जहां आंख खोली थी-आंख बंद करते समय आदमी पाता है कि वहीं
खड़ा है। और तब बड़ी हैरानी होती है कि इतनी जो दौड़- धूप की, उसका क्या हुआ? वह
जो प्रण किया था कहीं पहुंचने का वह जो यात्रा की थी कहीं पहुंचने के लिए वह
सब निकल गयी! मृत्यु के क्षण में आदमी वहीं पाता है अपने को, जहां वह जन्म के
क्षण में था! तब सारा जीवन एक सपना मालूम पड़ने लगता है। नाव कहीं बंधी रह गयी
किसी किनारे से।
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