सत्य जब भी अवतरित होता है, तब व्यक्ति के प्राणों पर अवतरित होता है। सत्य
भीड़ के ऊपर अवतरित नहीं होता।
सत्य को पकड़ने के लिए व्यक्ति का प्राण ही वीणा बनता है। सत्य वहीं से झंकृत
होता है। भीड़ के पास कोई सत्य नहीं है। भीड़ के पास उधार बातें हैं जो कि
असत्य हो गयी हैं। भीड़ के पास किताबें हैं जो कि मर चुकी हैं। भीड़ के पास
महात्माओं, तीर्थंकरों और अवतारों के नाम है-जो सिर्फ नाम हैं। उनके पीछे कुछ
भी नहीं बचा, सब राख हो गया है।
भीड़ के पास परंपराएं हैं; भीड़ के पास याददाश्ते हैं; भीड़ के पास हजार-हजार
साल की आदतें हैं; लेकिन भीड़ के पास चित्त नहीं जो मुक्त होकर सत्य को जान
लेता है। जब भी कोई उस चित्त को उपलब्ध करता है तो अकेले, व्यक्ति की तरह, उस
चित्त को उपलब्ध करना पड़ता है।
इसलिए जहां-जहां भीड़ है, जहां-जहां भीड़ का आग्रह है-हिंदुओं की भीड,
मुसलमानों की भीड़, ईसाइयों की भीड़, जैनियों की भीड़, बौद्धों की भीड़-वहां सब
असत्य है। हिंदू भी, मुसलमान भी; ईसाई भी, जैन भी-और कोई भी नाम हो-भीड़ का
कोई भी संबंध सत्य से नहीं है।
लेकिन, हम भीड़ को देखकर जीते हैं। हम देखते है-'भीड़ क्या कह रही
है, भीड़ क्या मान रही है?'
जो आदमी भीड़ को देखकर जीता है, वह अपने बाहर ही भटकता रह जाता
है; क्योंकि भीड़ बाहर है। जिस आदमी को भीतर जाना होता है, उसे भीड़ से
आंखें हटा लेनी पड़ती हैं। और अपनी तरफ, जहां वह अकेला है उस तरफ, आंखें ले
जानी पड़ती हैं। लेकिन हम सब? हम सब भीड़ से बंधे हैं, भीड़ की खूंटी से बंधे
हैं।
मैंने सुना है, एक सम्राट् था। उस सम्राट् के दरबार में एक आदमी आया और उस
आदमी ने आकर कहा कि ''महाराज, आपने सारी पृथ्वी जीत ली, लेकिन एक चीज की कमी
है आपके पास।''
उस सम्राट ने कहा, ''कमी? कौन-सी है कमी? जल्दी बताओ; क्योंकि मैं तो बेचैन
हुआ जाता हूं। मैं तो सोचता था सब मैंने जीत लिया।''
उस आदमी ने कहा, ''आपके पास देवताओं के वस्त्र नहीं हैं। मैं देवताओं के
वस्त्र आपके लिए ला सकता हूं।'
सम्राट् ने कहा, ''देवताओं के वस्त्र तो न कभी देखे, न सुने! कैसे लाओगे?''
उस आदमी ने कहा, ''लाना ऐसे तो बहुत मुश्किल है, क्योंकि देवता आजकल पहले की
तरह सरल नहीं रहे। जब से हिंदुस्तान के सब राजनीतिज्ञ मर कर स्वर्गीय होने
लगे हैं तब से वहां बड़ा बेईमानी और करपान सब तरह की शुरू हो गयी है।
हिंदुस्तान के राजनीतिज्ञ मरकर स्वर्गीय हो जाते हैं! नरक तो उनमें कोई जाता
ही नहीं।
हालांकि कोई भी राजनीतिज्ञ स्वर्ग में नहीं जा सकता; क्योंकि राजनीतिज्ञ जिस
दिन स्वर्ग में जाने लगेंगे, उस दिन स्वर्ग भले आदमियों के रहने योग्य जगह न
रह जाएगी। लेकिन वैसे तो सभी स्वर्ग में हैं।
...तो उसने कहा, ''जब से वे सब पहुंचने लगे हैं वहां, बड़ी मुश्किल हो गयी है।
बहुत रिश्वत चल पड़ा है वहां। लाने भी हों अगर दो-चार वस्त्र तो करोड़ों रुपए
खर्च हो जाएंगे।''
सम्राट् ने कहा, ''करोड़ों रुपए!''
उस आदमी ने कहा, ''दिल्ली में सिर्फ जाना हो, तो लाखों खर्च हो जाते है! वह
तो स्वर्ग है, वहां करोड़ों रुपए खर्च होना स्वाभाविक है। चपरासी भी वहा
करोड़ों से नीचे बात नहीं करते।''
राजा ने कहा, ''धोखा देने की कोशिश तो नहीं कर रहे हो?''
उस आदमी ने कहा, ''सम्राट् को धोखा देना मुश्किल है क्योंकि उनसे बड़े धोखेबाज
जमीन पर दूसरे नहीं हो सकते; उनको क्या धोखा दिया जा सकता है? डाकुओं को क्या
लूटा जा सकता है? हत्यारों की क्या हत्या की जा सकती है? मैं मामूली आदमी,
आपको क्या धोखा दूंगा? चाहें तो आप पहरा बैठा लें, मुझे भीतर बंद कर लें। मैं
महल के भीतर ही रहूंगा, क्योंकि देवताओं के यहां जाने का रास्ता आंतरिक है।
इसलिए बाहर की कोई यात्रा नहीं करनी है। लेकिन करोड़ों रुपए खर्च होंगे और छह
महीने लग जाएंगे।''
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