कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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यह प्रभापूर्ण तब मुख
निहार,
मनु हत-चेतन थे एक बार;
नारी माया-ममता का बल,
वह शक्तिमयी छाया शीतल,
फिर कौन क्षमा कर दे
निश्छल,
जिससे यह धन्य बने भूतल
'तुम क्षमा करोगी' यह
विचार,
''मैं छोडूं कैसे
साधिकार।''
''अब मैं रह सकती नहीं मौन
अपराधी किन्तु यहां न कौन?
सुख-दुख जीवन में सब
सहते,
पर केवल सुख अपना कहते,
अधिकार न सीमा में रहते,
पावस-निर्झर-से वे बहते,
रोके फिर उनको भला कौन?
सबको वे कहते-'शत्रु हो
न!'
अग्रसर हो रही यहां फूट,
सीमायें कृत्रिम रहीं टूट,
श्रम-भाग वर्ग बन गया
जिन्हें,
अपने बल का है गर्व
उन्हें,
नियमों की करनी सृष्टि
जिन्हें,
विप्लव की करनी वृष्टि
उन्हें,
सब पिये मत्त लालसा घूंट,
मेरा साहस अब गया छूट।
मैं जनपद-कल्याणी
प्रसिद्ध,
अब अवनति कारण हूं
निषिद्ध,
मेरे सुविभाजन हुए विषम,
टूटते, नित्य बन रहे
नियम,
नाना केन्द्रों में
जलधर-सम,
घिर हट, बरसे ये उपलोपम।
यह ज्वाला इतनी है समिद्ध,
आहुति बस चाह रही समृद्ध।
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