कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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जीवन धारा सुन्दर प्रवाह
सत्, सतत, प्रकाश सुखद
अथाह,
ओ तर्कमयी! तू गिने लहर
प्रतिबिंबित तारा पकड़,
ठहर,
तू रुक-रुक देखे आठ पहर,
वह जड़ता की स्थिति, भूल
न कर,
सुख - दुख का मधुमय
धूप-छांह,
तूने छोड़ी यह सरल राह।
चेतनता का भौतिक विभाग -
कर, जग को बांट दिया विरण
चिति का स्वरूप यह
नित्य-जगत
वह रूप बदलता है शत - शत,
कण विरह-मिलन-मय
नृत्य-निरत
उल्लासपूर्ण आनंद सतत
तल्लीन-पूर्ण है एक राग
झंकृत है केवल 'जाग जाग!'
मैं लोक-अग्नि में तप
नितांत
आहुति प्रसन्न देती
प्रशांत,
तू क्षमा कर कुछ चाह रही,
जलती छाती की दाह रही,
तो ले ले जो निधि पास
रही,
मुझको बस अपनी राह रही
रह सौम्य! यहीं, हो सुखद
प्रांत,
विनिमय कर कर कर्म कांत।
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