कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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रजत-कुसुम के नव पराग-सी
उड़ा न दे तू इतनी धूल-
इस ज्योत्स्ना की, अरी
बावली तू इसमें जावेगी भूल।
पगली! हां सम्हाल ले,
कैसे छूट पड़ा तेरा अंचल?
देख, बिखरती है
मणिराजी-अरी उठा बेसुध चंचल।
फटा हुआ था नील वसन क्या
ओ यौवन की मतवाली!
देख, अकिंचन जगत लूटता
तेरी छवि भोली-भाली!
ऐसे अतुल अनंन विभव में
जाग पड़ा क्यों तीव्र विराग?
या भूली-सी खोज रही
कुछ-जीवन की छाती के दाग।''
''मैं भी भूल गया हूं
कुछ, हां स्मरण नहीं होता, क्या था?
प्रेम, वेदना, भ्रांति या
कि क्या? मन जिसमें सुख सोता था!
मिले कहीं वह पड़ा अचानक,
उसको भी न लुटा देना;
देख तुझे भी दूंगा तेरा
भाग, न उसे भुला देना!''
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