कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
|
9 पाठकों को प्रिय 92 पाठक हैं |
विश्व में जो सरल सुन्दर
हो विभूति महान,
सभी मेरी है, सभी करती
रहें प्रतिदान।
यही तो, मैं ज्वलित
वाडव-वह्नि नित्य-अशांत,
सिंधु लहरों-सा करें शीतल
मुझे सब शांत।''
आ गया फिर पास क्रीड़ाशील
अतिथि उदार,
चपल शैशव-सा मनोहर भूल का
ले भार।
कहा ''क्यों तुम अभी बैठे
ही रहे धर ध्यान,
देखती हैं आंख कुछ, सुनते
रहे कुछ कान-
मन कहीं, यह क्या हुआ है?
आज कैसा रंग?''
नत हुआ फण दृप्त ईर्षा
का, विलीन उमंग।
और सहलाने लगा कर-कमल
कोमल कांत,
देखकर वह रूप-सुषमा मनु
हुए कुछ शांत।
कहा ''अतिथि! कहां रहे
तुम किधर थे अज्ञात?
और यह सहचर तुम्हारा कर
रहा ज्यों बात-
किसी सुलभ भविष्य की,
क्यों आज अधिक अधीर?
मिल रहा तुमसे चिरंतन
स्नेह-सा गंभीर?
कौन हो तुम खींचते यों
मुझे अपनी ओर!
और ललचाते स्वयं हटते उधर
की ओर!
ज्योत्स्ना- निर्झर!
ठहरती ही नहीं यह आंख,
तुम्हें कुछ पहचानने की
खो गयी-सी साख।
कौन करुण रहस्य है तुममें
छिपा छविमान?
लता-वीरुध दिया करते जिसे
छायादान।
|