कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
|
9 पाठकों को प्रिय 92 पाठक हैं |
चलो, देखा वह चला आता
बुलाने ओज-
सरल हंसमुख विधु
जलद-लघु-खंड-वाहन साज!
कालिमा धुलने लगी घुलने
लगा आलोक।
इसी निभृंत अनंत में बसने
लगा अब लोक।
इस निशामुख की मनोहर
सुधामय मुसक्यान,
देखकर सब भूल जाएं दु:ख
के अनुमान।
देख लो, ऊंचे शिखर का
व्योम-चुंबन-व्यस्त-
लौटना अंतिम किरण का और
होना अस्त।
चलो तो इस कौमुदी में देख
आवें आज,
प्रकृति का यह
स्वप्न-शासन, साधना का राज।''
सृष्टि हंसने लगी आंखों
में खिला अनुराग,
राग-रंजित चंद्रिका थी,
उड़ा सुमन-पराग।
और हंसता था अतिथि मनु का
पकड़कर हाथ,
चले दोनों स्वप्न-पथ में,
स्नेह-संबल साथ।
देवदारु निकुंज गह्वर सब
सुधा में स्नात,
सब मनाते एक उत्सव जागरण
की रात।
आ रही थी मदिर भीनी मायवी
की गंध,
पवन के घन घिरे पड़ते थे
बने मधु-अंध।
शिथिल अलसाई पड़ी छाया
निशा की कांत-
सो रही थी शिशिर कण की
सेज पर विश्रांत।
|