कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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मेरे सपनों में कलरव का
संसार आंख जब खोल रहा,
अनुराग समीरों का तिरता
था इतराता-सा डोल रहा।
अभिलाषा अपने यौवन में
उठती उस सुख के स्वागत को,
जीवन भर के बल-वैभव से
सत्कृत करती दूरागत को।
किरणों का रज्जु समेट
लिया जिसका अवलंबन ले चढ़ती,
रस के निर्झर में धंस कर
मैं आनन्द-शिखर के प्रति बढ़ती।
छूने में हिचक, देखने में
पलकें आंखों पर झुकती हैं,
कलरव परिहास भरी गूंजें
अधरों तक सहसा रुकती हैं।
संकेत कर रही रोमाली
चुपचाप बरजती खड़ी रही,
भाषा बन भौंहों की काली
रेखा-सी भ्रम में पड़ी रही।
तुम कौन! हृदय की परवशता?
सारी स्वतंत्रता छीन रही,
स्वच्छंद सुमन जो खिल रहे
जीवन-वन से ही बीन रही''!
संध्या की लाली में
हंसती, उसका ही आश्रय लेती-सी,
छाया प्रतिमा गुनगुना उठी
श्रद्धा का उत्तर देती-सी।
'इतना न चमत्कृत हो बाले!
अपने मन का उपकार करो,
मैं एक पकड़ हूं जो कहती
ठहरो कुछ सोच-विचार करो।
अम्बर-चुंबी हिम-श्रृंगों
से कलरव कोलाहल साथ लिये,
विद्युत की प्राणमयी धारा
बहती जिसमें उन्माद लिये।
मंगल कुंकुम की श्री
जिसमें निखरी हो उषा की लाली,
भोला सुहाग इठलाता हो ऐसी
हो जिसमें हरियाली।
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