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कविता संग्रह >> कामायनी

कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700
आईएसबीएन :9781613014295

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नारी जीवन का चित्र यही क्या? विकल रंग भी देती हो,
अस्फुट रेखा की सीमा में आकार कला को देती हो।

रुकती हूं और ठहरती हूं पर सोच-विचार न कर सकती,
पगली-सी कोई अन्तर में बैठी जैसे अनुदिन बकती।

मैं जभी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल जाती हूं,
भुजलता फंसा कर नर-तरु से झूले सी झोंके खाती हूं।

इस अर्पण में कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है,
मैं दे दूं और न फिर कुछ लूं, इतना ही सरल झलकता है।''

''क्या कहती हो ठहरो नारी! संकल्प अश्रु-जल-से अपने-
तुम दान कर चुकी पहले ही जीवन के सोने-से सपने।

नारी! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास-रजत-नग पगतल में,
पीयूष-स्त्रोत-सी बहा करो जीवन के सुंदर समतल में।

देवों की विजय, दानवों की हारों का होता युद्ध रहा,
संघर्ष सदा उर-अन्तर में जीवित रह नित्य-विरुद्ध रहा।

आंसू से भींगे अंचल पर मन का सब कुछ रखना होगा-
तुमको अपनी स्मित रेखा से वह संधिपत्र लिखना होगा।''  

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