कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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सदा समर्थन करती उसकी
तर्कशास्त्र की पीढ़ी,
''ठीक यही है सत्य! यही
है उन्नति सुख की सीढ़ी।
और सत्य! यह एक शब्द तू
कितना गहन हुआ है?
मेधा के क्रीड़ा-पंजर का
पाला हुआ सुआ है।
सब बातों में खोज
तुम्हारी रट-सी लगी हुई,
किन्तु स्पर्श के
तर्क-करों के बनता 'छुईमुई' है।
असुर पुरोहित उस विप्लव
से बचकर भटक रहे थे,
वे किलात-आकुल थे-जिसने
कष्ट अनेक सहे थे।
देख-देखकर मनु का पशु, जो
व्याकुल चंचल रहती-
उनकी आमिष-लोलुप-रसना
आंखों से कुछ कहती।
'क्यों किलात! खाते-खाते
तृण और कहां तक जीऊं,
कब तक मैं देखूं जीवित
पशु घूंट लहू का पीऊं!
क्या कोई इसका उपाय ही
नहीं कि डसको खाऊं?
बहुत दिनों पर एक बार तो
सुख की बीन बजाऊं।'
'आकुलि ने तब कहा -
'देखते नहीं, साथ में उसके
एक मृदुलता की, ममता की
छाया रहती हंस के।
अंधकार को दूर भगाती वह
आलोक किरण-सी,
मेरी माया बिंध जाती है
जिससे हल्की घन-सी।
तो भी चलो आज कुछ करके
मैं स्वस्थ रहूंगा,
यो जो भी आवेंगे सुख-दुख
उसको सहज सहूंगा।'
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