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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700
आईएसबीएन :9781613014295

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जीवन का संतोष अन्य का रोदन बन हंसता क्यों?
एक-एक विश्राम प्रगति को परिसर सा कसता क्यों?

दुर्व्यवहार एक का कैसे अन्य भूल जावेगा,
कौन उपाय! गरल को कैसे अमृत बना पावेगा!''

जाग उठी थी तरल वासना मिली रही मादकता,
मनु को कौन वहां आने से भला रोक अब सकता!

खुले मसृण भुज-मूलों से वह आमंत्रण था मिलता,
उन्नत वक्षों में आलिंगन-सुख लहरों-सा तिरता।

नीचा हो उठता जो धीमे-धीमे निश्वासों में,
जीवन का ज्यों ज्वार उठ रहा हिमकर के हासों में।

जागृत था सौंदर्य यद्यपि वह सोती थी सुकुमारी,
रूप-चंद्रिका में उज्ज्वल थी आज निशा-सी नारी।

वे मांसल परमाणु किरण से विद्युत थे बिखराते,
अलकों की डोरी में जीवन कण-कण उलझे जाते।

विगत विचारों के श्रम-सीकर बने हुए थे मोती,
मुख-मंडल पर करुण कल्पना उनको रही पिरोती।

छूते थे मनु और कंटकित होती थी वह बेली,
स्वस्थ-व्यथा की लहरों-सी जो अंग-लता थी फैली।

वह पागल सुख इस जगती का आज विराट बना था,
अंधकार-मिश्रित प्रकाश का एक वितान तना था।

कामायनी जगी थी कुछ-कुछ खोकर सब चेतनता,
मनोभाव आकार स्वयं ही रहा बिगड़ता बनता।

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