कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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श्रद्धा जाग रही थी तब भी
छाई थी मादकता,
मधुर-भाव उसके तन-मन में
अपना ही रस छलकता।
बोली एक सहज मुद्रा से
''यह तुम क्या कहते हो,
आज अभी तो किसी भाव की
धारा में बहते हो।
कल ही यदि परिवर्तन होगा
तो फिर कौन बचेगा!
क्या जाने कोई साथी बन
नूतन यज्ञ रचेगा।
और किसी की फिर बली होगी
किसी देव के नाते,
कितना धोखा! उससे तो हम
अपना ही सुख पाते।
ये प्राणी जो बचे हुए हैं
इस अचला जगती के,
उनको कुछ अधिकार नहीं
क्या वे सब ही हैं फीके?
मनु! क्या यही तुम्हारी
होगी उज्ज्वल नव मानवता।
जिसमें सब कुछ ले लेना हो
हंत! बची क्या शवता। ''
''तुच्छ नहीं है अपना सुख
भी श्रद्धे! वह भी कुछ है,
दो दिन के इस जीवन का तो
वही चरम सब कुछ है।
इंद्रिय का अभिलाषा जितनी
सतत् सफलता पावे,
जहां हृदय की
तृप्ति-विलासिनी मधुर-मधुर कुछ गावे।
रोम-हर्ष हो ज्योत्सना
में मृदु मुस्कान खिले तो,
आशाओं पर श्वास निछावर
होकर गले मिले तो।
विश्व-माधुरी जिसके
सम्मुख मुकुर बनी रहती हो,
वह अपना सुख-स्वर्ग नहीं
है! यह तुम क्या कहती हो?
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