कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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देखा क्या तुमने कभी नहीं
स्वर्गीय सुखी पर प्रलय-नृत्य?
फिर नाश और चिर-निद्रा है
तब इतना क्यों विश्वास सत्य?
यह चिर-प्रशांत-मंगल की
क्यों अभिलाषा इतनी रही जाग?
यह संचित क्यों हो रहा
स्नेह किस पर इतनी हो सानुराग?
यह जीवन का वरदान-मुझे दे
दो रानी-अपना दुलार,
केवल मेरी ही चिंता का
तव-चित वहन कर रहे भार।
मेरा सुंदर विश्राम बना
सृजता हो मधुमय विश्व एक,
जिसमें बहती हो मधु-धारा
लहरें उठती हों एक-एक।''
''मैंने तो एक बनाया है
चल कर देखो मेरा कुटीर,''
यों कह कर श्रद्धा हाथ
पकड़ मनु को ले चली वहां अधीर।
उस गुफा समीप पुआलों की
छाजन छोटी-सी शांति-पुंज,
कोमल लतिकाओं की डालें
मिल सघन बनाती जहां कुंज,
थे वातायन भी कटे हुए -
प्राचीन पर्णमय रचित शुभ्र,
आवें क्षण भर तो चलें
जायं-रुक जायं कहीं न समीर, अभ्र।
उसमें था झूला पड़ा हुआ
बेतसी-लता का सुरुचिपूर्ण,
बिछ रहा धरातल पर चिकना
सुमनों का कोमल सुरभि-चूर्ण।
कितनी मीठी अभिलाषायें
उसमें चुपके से रहे घूम।
कितने मंगल के मधुर गान
उसके कोनों को रहे चूम!
मनु देख रहा था चकित नया
यह गृहलक्ष्मी का गृह-विधान।
परकुछ अच्छा-सा नहीं लगा,
'यह क्यों? किसका सुख साभिमान?'
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