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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700
आईएसबीएन :9781613014295

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''ऐं तुम फिर भी यहां आज कैसे चल आयी
क्या कुछ और उपद्रव की है बात समायी-

मन में, यह सब आज हुआ है जो कुछ इतना!
क्या न हुई है तुष्टि? बच रहा है अब कितना ?''

''मनु, सब शासन स्वत्व तुम्हारा सतत निबाहें
तुष्टि, चेतना का क्षण अपना अन्य न चाहें!

आह प्रजापति यह न हुआ है, कभी न होगा,
निर्वाधित अधिकार आज तक किसने भोगा ?''

यह मनुष्य आकार चेतना का है विकसित
एक विश्व अपने आवरणों में है निर्मित!

चिति-केंद्रों में जो संघर्ष चला करता है,
द्वयता का जो भाव सदा मन में भरता है-

वे विस्मृत पहचान रहे से एक एक को,
होते सतत समीप मिलते हैं अनेक को।

स्पर्धा में जो उत्तम ठहरें वे रह जावें,
संसृति का कल्याण करें शुभ मार्ग बतावें।

व्यक्ति चेतना इसीलिए परतंत्र बनी-सी,
रागपूर्ण, पर द्वेष-पंक में सतत सनी सी।

नियम मार्ग में पद-पद पर है ठोकर खाती,
अपने लक्ष्य समीप श्रांत हो चलती जाती।

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