उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
|
2 पाठकों को प्रिय 371 पाठक हैं |
कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'चुप रहो विजय!
उच्छृंखलता की भी एक सीमा होती है।'
'अच्छा
जाने दो। घण्टी के चरित्र पर विश्वास नहीं, तो क्या समाज और धर्म का यह
कर्तव्य नहीं कि उसे किसी प्रकार अवलम्ब दिया जाये, उसका पथ सरल कर दिया
जाये यदि मैं घण्टी से ब्याह करूँ तो तुम पुरोहित बनोगे बोलो, मैं इसे
करके पाप करूँगा या पुण्य?'
'यह पाप हो या पुण्य,
तुम्हारे लिए हानिकारक होगा।'
'मैं
हानि उठाकर भी समाज के एक व्यक्ति का कल्याण कर सकूँ तो क्या पाप करूँगा
उत्तर दो, देखें तुम्हारा धर्म क्या व्यवस्था देता है।' विजय अपनी निश्चित
विजय से फूल रहा था।
'वह वृंदावन की एक
कुख्यात बाल-विधवा है, विजय।'
सहज
में पच आने वाला धीरे से गले उतर जाने वाला स्निग्ध पदार्थ सभी आत्मसात्
कर लेते हैं। किन्तु कुछ त्याग - सो भी अपनी महत्ता का त्याग - जब धर्म के
आदर्श ने नहीं, तब तुम्हारे धर्म को मैं क्या कहूँ, मंगल।'
'विजय!
मैं तुम्हारा इतना अनिष्ट नहीं देख सकता। इसे त्याग तुम भले ही समझ लो; पर
इसमें क्या तुम्हारी दुर्बलता का स्वार्थपूर्ण अंश नहीं है। मैं यह मान भी
लूँ कि विधवा से ब्याह करके तुम एक धर्म सम्पादित करते हो, तब भी घण्टी
जैसी लड़की से तुमको जीवन से जिए परिणय सूत्र बाँधने के लिए मैं एक मित्र
के नाते प्रस्तुत नहीं।'
'अच्छा मंगल! तुम मेरे
शुभचिन्तक हो; यदि मैं यमुना से ब्याह करूँ? वह तो...'
'तुम पिशाच हो!' कहते हुए
मंगल उठकर चला गया।
|