उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
एक दिन विजय और किशोरी की
मुठभेड़ हो गयी। बात यह थी कि निरंजन ने इतना ही कहा कि मद्यपों के संसर्ग
में रहना हमारे लिए असंभव है! विजय ने हँसकर कहा, 'अच्छी बात है, दूसरा
स्थान खोज लीजिये। ढोंग से दूर रहना मुझे भी रुचिकर है।' किशोरी आ गयी,
उसने कहा, 'विजय, तुम इतने निर्लज्ज हो! अपने अपराधों को समझकर लज्जित
क्यों नहीं होते नशे की खुमारी से भरी आँखों को उठाकर विजय ने किशोरी की
ओर देखा और कहा, 'मैं अपने कर्मों पर हँसता हूँ, लज्जित नहीं होता।
जिन्हें लज्जा बड़ी प्रिय हो, वे उसे अपने कामों में खोजें।'
किशोरी
मर्माहत होकर उठ गयी, और अपना सामान बँधवाने लगी। उसी दिन काशी लौट जाने
का उसका दृढ़ निश्चय हो गया। यमुना चुपचाप बैठी थी। उससे किशोरी ने पूछा,
'यमुना, क्या तुम न चलोगी?'
'बहूजी, मैं अब कहीं नहीं
जाना चाहती; यहीं वृन्दावन में भीख माँगकर जीवन बिता लूँगी!'
'यमुना, खूब समझ लो!'
'मैंने कुछ रुपये इकट्ठे
कर लिए हैं, उन्हें किसी के मन्दिर में चढ़ा दूँगी और दो मुट्ठी भर भात
खाकर निर्वाह कर लूँगी।'
'अच्छी बात है!' किशोरी
रूठकर उठी।
यमुना की आँखों से आँसू
बह चले। वह भी अपनी गठरी लेकर किशोरी के जाने के पहले ही उस घर से निकलने
के लिए प्रस्तुत थी।
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