उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'वह मेरे बँगले में हैं,
घबराने की आवश्यकता नहीं। चलो!'
विजय
धीरे-धीरे बँगले में आया और एक आरामकुर्सी पर बैठ गया। इतने में चर्च का
घण्टा बजा। पादरी ने चलने की उत्सुकता प्रकट की, लतिका ने कहा, 'पिता!
बाथम प्रार्थना करने जाएँगे; मुझे आज्ञा हो, तो इस विपन्न मनुष्यों की
सहायता करूँ, यह भी तो प्रार्थना से कम नहीं है।'
जान ने कुछ न कहकर कुबड़ी
उठायी। बाथम उसके साथ-साथ चला।
अब लतिका और सरला विजय और
घण्टी की सेवा में लगी। सरला ने कहा, 'चाय ले आऊँ, उसे पीने से स्फूर्ति आ
जायेगी।'
विजय ने कहाँ, 'नहीं
धन्यवाद। अब हम लोग चले जा सकते हैं।'
'मेरी सम्मति है कि आज की
रात आप लोग इसी बँगले पर बितावें, संभव है कि वे दुष्ट फिर कहीं घात में
लगे हों।' लतिका ने कहा।
सरला
लतिका के इस प्रस्ताव से प्रसन्न होकर घण्टी से बोली, 'क्यों बेटी!
तुम्हारी क्या सम्मति है तुम लोगों का घर यहाँ से कितनी दूर है?' कहकर
रामदास को कुछ संकेत किया।
विजय ने कहा, 'हम लोग
परदेशी हैं,
यहाँ घर नहीं। अभी यहाँ आये एक सप्ताह से अधिक नहीं हुआ है। आज मैं इनके
साथ एक ताँगे पर घूमने निकला। दो-तीन दिन से दो-एक मुसलमान गुण्डे हम
लोगों को प्रायः घूम-फिरते देखते थे। मैंने उस पर कुछ ध्यान नहीं दिया था,
आज एक ताँगे वाला मेरे कमरे के पास ताँगा रोककर बड़ी देर तक किसी से बातें
करता रहा। मैंने देखा, ताँगा अच्छा है। पूछा, किराये पर चलोगे! उसने
प्रसन्नता से स्वीकार कर लिया। संध्या हो चली थी। हम लोगों ने घूमने के
विचार से चलना निश्चित किया और उस पर जा बैठे।'
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