उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
विजय ने कहा 'इसमें भी
कोई सन्देह है?'
सरला
दूर खड़ी इन लोगों की बातें सुन रही थी। उसको एक प्रकार की प्रसन्नता हुई।
बाथम ने कमरे में विक्रय के चित्र और कलापूर्ण सामान सजाये हुए थे। वह
कमरा छोटी-सी एक प्रदर्शनी थीं। दो-चार चित्रों पर विजय ने अपनी सम्मति
प्रकट की, जिसे सुनकर बाथम बहुत ही प्रसन्न हुआ। उसने विजय से कहा, 'आप तो
सचमुच इस कला के मर्मज्ञ हैं, मेरा अनुमान ठीक ही था।'
विजय ने
हँसते हुए कहा, 'मैं चित्रकला से बड़ा प्रेम रखता हूँ। मैंने बहुत से
चित्र बनाये भी हैं। और महाशय, यदि आप क्षमा करें, तो मैं यहाँ तक कह सकता
हूँ कि इनमें से कितने सुन्दर चित्र, जिन्हें आप प्राचीन और बहुमूल्य कहते
हैं, वे असली नहीं हैं।'
'बाथम को कुछ क्रोध और
आश्चर्य हुआ। पूछा, 'आप इसका प्रमाण दे सकते हैं?'
'प्रमाण
नहीं, मैं एक चित्र की प्रतिलिपि कर दूँगा। आप देखते नहीं, इन चित्रों के
रंग ही कह रहे हैं कि वे आजकल के हैं - प्राचीन समय में वे बनते ही कहाँ
थे, और सोने की नवीनता कैसी बोल रही है। देखिये न!' इतना कहकर एक चित्र
बाथम के हाथ में उठाकर दिया। बाथम ने ध्यान से देखकर धीरे-धीरे टेबुल पर
रख दिया और फिर हँसते हुए विजय के दोनों हाथ पकड़कर हाथ हिला दिया और कहा,
'आप सच कहते हैं। इस प्रकार से मैं स्वयं ठगा गया और दूसरे को भी ठगता
हूँ। क्या कृपा करके आप कुछ दिन और मेरे अतिथि होंगे? आप जितने दिन मथुरा
में रहें, मेरे ही यहाँ रहें - यह मेरी हार्दिक प्रार्थना है। आपके मित्र
को कोई भी असुविधा न होगी। सरला हिन्दुस्तानी रीति से आपके लिए सब प्रबन्ध
करेगी।'
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