उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'ओह! मैं तो घबरा गयी
थी कि चित्र कब तक बनेगा। ऐसा भी कोई काम करता है। न न विजय बाबू, अब आप
दूसरा चित्र न बनाना - मुझे यहाँ लाकर अच्छे बन्दीगृह में रख दिया! कभी
खोज तो लेते, एक-दो बात भी तो पूछ लेते!' घण्टी ने उलाहनों की झड़ी लगा
दी। विजय ने अपनी भूल का अनुभव किया। यह निश्चित नहीं है कि सौन्दर्य हमें
सब समय आकृष्ट कर ले। आज विजय ने एक क्षण के लिए आँखें खोलकर घण्टी को
देखा - उस बालिका में कुतूहल छलक रहा है। सौन्दर्य का उन्माद है, आकर्षण
है!
विजय ने कहा, 'तुम्हें
बड़ा कष्ट हुआ, घण्टी!'
घण्टी ने कहा, 'आशा है,
अब कष्ट न दोगे!'
पीछे
से बाथम ने प्रवेश करते हुए कहा, 'विजय बाबू, बहुत सुन्दर 'मॉडल' है।
देखिये, यदि आप नादिरशाह का चित्र पूरा कर चुके हो तो एक मौलिक चित्र
बनाइये।'
विजय ने देखा, यह सत्य
है। एक कुशल शिल्पी की बनायी हुई
प्रतिमा-घण्टी खड़ी रही। बाथम चित्र देखने लगा। फिर दोनों चित्रों को
मिलाकर देखा। उसने सहसा कहा, 'आश्चर्य! इस सफलता के लिए बधाई।'
विजय
प्रसन्न हो रहा था। उसी समय बाथम ने फिर कहा, 'विजय बाबू, मैं घोषणा करता
हूँ कि आप भारत के एक प्रमुख चित्रकार होंगे! क्या आप मुझे आज्ञा देंगे कि
मैं इस अवसर पर आपके मित्र को कुछ उपहार दूँ?'
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