उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
कहते-कहते गोस्वामी की
आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। श्रोता भी रो रहे थे।
गोस्वामी
चुप होकर बैठ गये। श्रोताओं ने इधर-उधर होना आरम्भ किया। मंगल देव आश्रम
में ठहरे हुए लोगों के प्रबन्ध में लग गया। परन्तु यमुना वह दूर एक
मौलसिरी के वृक्ष की नीचे चुपचाप बैठी थी। वह सोचती थी-ऐसे भगवान भी
बाल्यकाल में अपनी माता से अलग कर दिये गये थे! उसका हृदय व्याकुल हो उठा।
वह विस्मृत हो गयी कि उसे शान्ति की आवश्यकता है। डेढ़ सप्ताह के अपने
हृदय के टुकड़े के लिए वह मचल उठी- वह अब कहाँ है क्या जीवित है उसका पालन
कौन करता होगा वह जियेगा अवश्य, ऐसे बिना यत्न के बालक जीते हैं, इसका तो
इतना प्रमाण मिल गया है! हाँ, और वह एक नर रत्न होगा, वह महान होगा!
क्षण-भर में माता का हृदय मंगल-कामना से भर उठा। इस समय उसकी आँखों में
आँसू न थे। वह शान्त बैठी थी। चाँदनी निखर रही थी! मौलसिरी के पत्तों के
अन्तराल से चन्द्रमा का आलोक उसके बदन पर पड़ रहा था! स्निग्ध मातृ-भावना
से उसका मन उल्लास से परिपूर्ण था। भगवान की कथा के बल से गोस्वामी ने
उसके मन के एक सन्देह, एक असंतोष को शान्त कर दिया था।
मंगलदेव
को आगन्तुकों के लिए किसी वस्तु की आवश्यकता थी। गोस्वामी जी ने कहा, 'जाओ
यमुना से कहो।' मंगल यमुना का नाम सुनते ही एक बार चौंक उठा। कुतहूल हुआ,
फिर आवश्यकता से प्रेरित होकर किसी अज्ञात यमुना को खोजने के लिए आश्रम के
विस्तृत प्रांगण में घूमने लगा।
मौलसिरी के वृक्ष के नीचे
यमुना
निश्चल बैठी थी। मंगलदेव ने देखा एक स्त्री है, यही यमुना होगी। समीप
पहुँचकर देखा, तो वही यमुना थी!
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