उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
लतिका
ने आँख खोलकर देखा- अँधेरा चाँदनी को पिये जाता है! अस्त-व्यस्त नक्षत्र,
शवरी रजनी की टूटी हुई काँचमाला के टुकड़े हैं, उनमें लतिका अपने हृदय का
प्रतिबिम्ब देखने की चेष्टा करने लगी। सब नक्षत्रों में विकृत प्रतिबिम्ब
वह डर गयी! काँपती हुई उसने सरला का हाथ पकड़ लिया।
सरला ने उसे
धीरे-धीरे पलंग तक पहुँचाया। वह जाकर पड़ रही, आँखें बन्द किये थी, वह डर
से खोलती न थी। उसने मेष-शावक और शिशु उसको प्यार कर रहा है; परन्तु यह
क्या-यह क्या-वह त्रिशूल-सी कौन विभीषिका उसके पीछे खड़ी है! ओह, उसकी
छाया मेष-शावक और शिशु दोनों पर पड़ रही है।
लतिका ने अपने पलकों
पर बल दिया, उन्हें दबाया, वह सो जाने की चेष्टा करने लगी। पलकों पर
अत्यंत बल देने से मुँदी आँखों के सामने एक आलोक-चक्र घूमने लगा। आँखें
फटने लगीं। ओह चक्र! क्रमशः यह प्रखर उज्ज्वल आलोक नील हो चला, मेघों के
जल में यह शीतल नील हो चला, देखने योग्य-सुदर्शन आँखें ठंडी हुईं, नींद आ
गयी।
समारोह का तीसरा दिन था।
आज गोस्वामी जी अधिक गम्भीर थे। आज
श्रोता लोग भी अच्छी संख्या में उपस्थित थे। विजय भी घण्टी के साथ ही आया
था। हाँ, एक आश्चर्यजनक बात थी- उसके साथ आज सरला और लतिका भी थीं। बुड्ढा
पादरी भी आया था।
गोस्वामी जी का व्याख्यान
आरम्भ हुआ-
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