उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'विधवा-विवाह-सभा
में चलकर हम लोग...' कहते-कहते चन्दा रुक गयी; क्योंकि श्रीचन्द्र
मुस्काने लगा था। उसी हँसी में एक मार्मिक व्यंग्य था। चन्दा तिलमिला उठी।
उसने कहा, 'तुम्हारा सब प्रेम झूठा था!'
श्रीचन्द्र ने पूरे
व्यवसायी के ढंग से कहा, 'बात क्या है, मैंने तो कुछ कहा भी नहीं और तुम
लगीं बिगड़ने!'
चन्दा-'मैं तुम्हारी हँसी
का अर्थ समझती हूँ!'
श्रीचन्द्र-'कदापि
नहीं। स्त्रियाँ प्रायः तुनक जाने का कारण सब बातों में निकाल लेती हैं।
मैं तुम्हारे भोलेपन पर हँस रहा था। तुम जानती हो कि ब्याह के व्यवसाय में
तो मैंने कभी का दिवाला निकाल दिया है, फिर भी वही प्रश्न।'
चन्दा
ने अपना भाव सम्हालते हुए कहा, 'ये सब तुम्हारी बनावटी बातें हैं। मैं
जानती हूँ कि तुम्हारी पहली स्त्री और संसार तुम्हारे लिए नहीं के बराबर
है। उसके लिए कोई बाधा नहीं। हम-तुम जब एक हो जायेंगे, तब सब सम्पत्ति
तुम्हारी हो जायेगी!'
श्रीचन्द्र-'यह तो यों भी
हो सकता है; पर मेरी एक सम्मति है, उसे मानना-न मानना तुम्हारे अधिकार में
है। मगर है बात बड़ी अच्छी!'
चन्दा-'क्यों?'
श्रीचन्द्र-'तुम
जानती हो कि विजय मेरे लड़के नाम से प्रसिद्ध है और काशी में अमृतसर की
गन्ध अभी नहीं पहुँची है। मैं यदि तुमसे विधवा-विवाह कर लेता हूँ, तो इस
सम्बन्ध में अड़चन भी होगी और बदनामी भी; क्या तुमको यह जामाता पसन्द
नहीं?'
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