उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
मंदलदेव ने देखा कि यह तो
वेश्या का रूप नहीं है।
वीरेन्द्र ने पूछा, 'आपका
नाम?'
उसके 'गुलेनार' कहने में
कोई बनावट न थी।
सहसा मंगल चौंक उठा, उसने
पूछा, 'क्या हमने तुमको कहीं और भी देखा है?'
'यह अनहोनी बात नहीं है।'
'कई
महीने हुए, काशी में ग्रहण की रात को जब मैं स्वयंसेवक का काम कर रहा था,
मुझे स्मरण होता है, जैसे तुम्हें देखा हो; परन्तु तुम तो मुसलमानी हो।'
'हो सकता है कि आपने मुझे
देखा हो; परन्तु उस बात को जाने दीजिये, अभी अम्मा आ रही हैं।'
मंगलदेव कुछ कहना ही
चाहता था कि 'अम्मा' आ गयी। वह विलासजीर्ण दुष्ट मुखाकृति देखते ही घृणा
होती थी।
अम्मा ने कहा, 'आइये बाबू
साहब, कहिये क्या हुक्म है?’
'कुछ नहीं। गुलेनार को
देखने के लिए चला आया था।' कहकर वीरेन्द्र मुस्करा दिया।
'आपकी
लौंडी है, अभी तो तालीम भी अच्छी तरह नहीं लेती, क्या कहूँ बाबू साहब,
बड़ी बोदी है। इसकी किसी बात पर ध्यान न दीजियेगा।' अम्मा ने कहा।
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