उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'वह अपराध यदि तुम्हीं से
सीखा गया हो, तो मुझे उत्तर देने की व्यवस्था न खोजनी पड़ेगी।'
'तो हम लोग क्या इतनी दूर
हैं कि मिलना असम्भव है?'
'असम्भव तो नहीं है, नहीं
तो मैं आता कैसे?'
अब स्त्री-सुलभ ईर्ष्या
किशोरी के हृदय में जगी। उसने कहा, 'आये होंगे किसी को घुमाने-फिराने, सुख
बहार लेने!'
किशोरी
के इस कथन में व्यंग्य से अधिक उलाहना था। न जाने क्यों श्रीचन्द्र को इस
व्यंग्य से संतोष हुआ, जैसे ईप्सित वस्तु मिल गयी हो। वह हँसकर बोला,
'इतना तो तुम भी स्वीकार करोगी कि यह कोई अपराध नहीं है।'
किशोरी
ने देखा, समझौता हो सकता है, अधिक कहा-सुनी करके इसे गुरुतर न बना देना
चाहिए। उसने दीनता से कहा, 'तो अपराध क्षमा नहीं हो सकता?'
श्रीचन्द्र
ने कहा, 'किशोरी! अपराध कैसा, अपराध समझता तो आज इस बातचीत का अवसर ही
नहीं आता। हम लोगों का पथ जब अलग-अलग निर्धारित हो चुका है, तब उसमें कोई
बाधक न हो, यही नीति अच्छी रहेगी। यात्रा करने तो हम लोग आये ही हैं; पर
एक काम भी है।'
किशोरी सावधान होकर सुनने
लगी। श्रीचन्द्र ने फिर
कहना आरम्भ किया-'मेरा व्यवसाय नष्ट हो चुका है, अमृतसर की सब सम्पत्ति
इसी स्त्री के यहाँ बन्धक है। उसके उद्धार का यही उपाय है कि इसकी सुन्दरी
कन्या लाली से विजय का विवाह करा दिया जाये।'
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