उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
आह! मैं दरिद्र थी, पर
मैं उन रोनी सूरत वाले
गम्भीर विद्वान-सा रुपयों के बोरों पर बैठे हुए भनभनाने वाले मच्छरों को
देखकर घृणा करती या उनका अस्तित्व ही न स्वीकार करती, जो जी खोलकर हँसते न
थे। मैं वृंदावन की एक हँसोड़ पागल थी, पर उस हँसी ने रंग पलट दिया; वही
हँसी अपना कुछ और उद्देश्य रखने लगी। फिर विजय; धीरे-धीरे जैसे सावन की
हरियाली पर प्रभात का बादल बनकर छा गया- मैं नाचने लगी मयूर-सी! और वह
यौवन का मेघ बरसने लगा। भीतर-बाहर रंग से छक गया। मेरा अपना कुछ न रहा।
मेरा आहार, विचार, वेश और भूषा सब बदला। वह बरसात के बादलों की रंगीन
संध्या थी; परन्तु यमुना पर विजय पाना साधारण काम न था। असंभव था। मैंने
संचित शक्ति से विजय को छाती से दबा लिया था। और यमुना...वह तो स्वयं राह
छोड़कर हट गयी थी, पर मैं बनकर भी न बन सकी- नियति चारों ओर से दबा रही
थी। और मैंने अपना कुछ न रखा था; जो कुछ था, सब दूसरी धातु का था; मेरे
उपादान में ठोस न था। लो-मैं चली; बाथम...उस पर भी लतिका रोती होगी-यमुना
सिसकती होगी...दोनों मुझे गाली देती होंगी, अरे-अरे; मैं हँसने वाली सबको
रुलाने लगी! मैं उसी दिन धर्म से च्युत हो गयी-मर गयी, घण्टी मर गयी। पर
यह कौन सोच रही है। हाँ, वह मरघट की ज्वाला धधक रही है- ओ, ओ मेरा शव वह
देखो - विजय लकड़ी के कुन्दे पर बैठा हुआ रो रहा है और बाथम हँस रहा है।
हाय! मेरा शव कुछ नहीं करता है - न रोता है, न हँसता है, तो मैं क्या हूँ!
जीवित हूँ। चारों ओर यह कौन नाच रहे हैं, ओह! सिर में कौन धक्के मार रहा
है। मैं भी नाचूँ - ये चुड़ैलें हैं और मैं भी! तो चलूँ वहाँ आलोक है।
घण्टी
अपना नया रेशमी साया नोचती हुई दौड़ पड़ी। बाथम उस समय क्लब में था।
मैजिस्ट्रेट की सिफारिशी चिट्ठी की उसे अत्यन्त आवश्यकता थी। पादरी जान
सोच रहा था - अपनी समाधि का पत्थर कहाँ से मँगाऊँ, उस पर क्रॉस कैसा हो!
उधर घण्टी - पागल घण्टी -
अँधेरे में भाग रही थी।
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