उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'नवाबी का माल दो बीबी!
बताओ
कहाँ है?' एक ने कहा। मेरी माँ बोली, 'हम लोगों की नवाबी उसी दिन गयी, जब
मुगलों का राज्य गया! अब क्या है, किसी तरह दिन काट रहे हैं।'
'यह
पाजी भला बतायेगी!' कहकर दो नर पिशाचों ने उसे घसीटा। वह विपत्ति की सताई
मेरी माँ मूर्च्छित हो गयी; पर डाकुओं में से एक ने कहा, 'नकल कर रही है!'
और उसी अवस्था में उसे पीटने लगे। पर वह फिर न बोली। मैं अवाक् कोने में
काँप रही थी। मैं भी मूर्च्छित हो रही थी कि मेरे कानों में सुनाई पड़ा,
'इसे न छुओ, मैं इसे देख लूँगा।' मैं अचेत थी।
इसी झोंपड़ी के एक
कोने में मेरी आँखें खुलीं। मैं भय से अधमरी हो रही थी। मुझे प्यास लगी
थी। ओठ चाटने लगी। एक सोलह बरस के युवक ने मुझे दूध पिलाया और कहा, 'घबराओ
न, तुम्हें कोई डर नहीं है। मुझे आश्वासन मिला। मैं उठ बैठी। मैंने देखा,
उस युवक की आँखों में मेरे लिए स्नेह है! हम दोनों के मन में प्रेम का
षड्यंत्र चलने लगा और उस सोलह बरस के बदन गूजर की सहानुभूति उसमें
उत्तेजना उत्पन्न कर रही थी। कई दिनों तक जब मैं पिता और माता का ध्यान
करके रोती, तो बदन मेरे आँसू पोंछता और मुझे समझाता। अब धीरे-धीरे मैं
उसके साथ जंगल के अंचलों में घूमने लगी।
गूजरों के नवाब का नाम
सुनकर बहुत धन की आशा में डाका डाला था, पर कुछ हाथ न लगा। बदन का पिता
सरदार था! वह प्रायः कहता, 'मैंने इस बार व्यर्थ इतनी हत्या की। अच्छा,
मैं इस लड़की को जंगल की रानी बनाऊँगा।'
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