उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
नये
ने पुस्तक बन्द करते हुए एक दीर्घ निःश्वास लिया। उसकी संचित स्नेह राशि
में उस राजवंश की जंगली लड़की के लिए हलचल मच गयी। विरस जीवन में एक नवीन
स्फूर्ति हुई। वह हँसते हुए गाला के पास पहुँचा। गाला इस समय अपने नये
बुलबुल को चारा दे रही थी।
'पढ़ चुके! कहानी अच्छी
है न?' गाला ने पूछा।
'बड़ी करुण और हृदय में
टीस उत्पन्न करने वाली कहानी है, गाला! तुम्हारा सम्बन्ध दिल्ली के
राज-सिंहासन से है-आश्चर्य!'
'आश्चर्य
किस बात का नये! क्या तुम समझते हो कि यही बड़ी भारी घटना है। कितने राज
रक्तपूर्ण शरीर परिश्रम करते-करते मर-पच गये, उस अनन्त अनलशिखा में, जहाँ
चरम शीतलता है, परम विश्राम है, वहाँ किसी तरह पहुँच जाना ही तो इस जीवन
का लक्ष्य है।'
नये अवाक् होकर उसका मुँह
देखने लगा। गाला सरल
जीवन की जैसे प्राथमिक प्रतिमा थी। नये ने साहस कर पूछा, 'फिर गाला, जीवन
के प्रकारों से तुम्हारे लिए चुनाव का कोई विषय नहीं, उसे बिताने के लिए
कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं।'
'है तो नये! समीप के
प्राणियों में सेवा-भाव, सबसे स्नेह-सम्बन्ध रखना, यह क्या मनुष्य के लिए
पर्याप्त कर्तव्य नहीं।'
'तुम अनायास ही इस जंगल
में पाठशाला खोलकर यहाँ के दुर्दान्त प्राणियों के मन में कोमल मानव-भाव
भर सकती है।'
'ओहो!
तुमने सुना नहीं, सीकरी में एक साधु आया है, हिन्दू-धर्म का तत्त्व समझाने
के लिए! जंगली बालकों की एक पाठशाला उसने खोल दी है। वह कभी- कभी यहाँ भी
आता है, मुझसे भी कुछ ले जाता है; पर मैं देखती हूँ कि मनुष्य बड़ा ढोंगी
जीव है - वह दूसरों को वही समझाने का उद्योग करता है, जिसे स्वयं कभी भी
नहीं समझता। मुझे यह नहीं रुचता! मेरे पुरखे तो बहुत पढ़े-लिखे और समझदार
थे, उनके मन की ज्वाला कभी शान्त हुई?'
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