उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
|
2 पाठकों को प्रिय 371 पाठक हैं |
कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
नीरसता से बदन ने कहा,
'क्यों, अच्छे तो हो?'
'आप लोगों की कृपा से।'
कहकर मंगल ने सिर झुका लिया।
बदन
बढ़ता चला जाता था और बातें भी करता जाता था। वह एक जगह बिसाती की दुकान
पर खड़ा होकर गाला की आवश्यक वस्तुएँ लेने गया। मंगल ने अवसर देखकर कहा,
'आज तो अचानक भेंट हो गयी, समीप ही मेरा आश्रय है, यदि उधर भी चलियेगा तो
आपको विश्वास हो जायेगा कि आप लोगों की भिक्षा व्यर्थ नहीं फेकीं जाती।'
गाला
समीप के कपड़े की दुकान देख रही थी, वृन्दावनी धोती की छींट उसकी आँखों
में कुतूहल उत्पन्न कर रही थी। उसकी भोली दृष्टि उस पर से न हटती थी। सहसा
बदन ने कहा, 'सूत और कागज ले लिए, किन्तु पिंजड़े तो यहाँ दिखाई नहीं
देते, गाला।'
'तो न सही, दूसरे दिन आकर
ले लूँगी।' गाला ने कहा;
पर वह देख रही थी धोती। बदन ने कहा, 'क्या देख रही है दुकानदार था चतुर,
उसने कहा, 'ठाकुर! यह धोती लेना चाहती है, बची भी इस छापे की एक ही है।'
जंगली
बदन इस नागरिक प्रगल्भता पर लाल तो हो गया, पर बोला नहीं। गाला ने कहा,
'नहीं, नहीं मैं भला इसे लेकर क्या करूँगी।' मंगल ने कहा, 'स्त्रियों के
लिए इससे पूर्ण वस्त्र और कोई हो ही नहीं सकता। कुरते के ऊपर से इसे पहन
लिया जाए, तो यह अकेला सब काम दे सकता है।' बदन को मंगल का बोलना बुरा तो
न लगा, पर वह गाला का मन रखने के लिए बोला, 'तो ले ले गाला।'
|