उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
गाला निरुपाय नीचे उतरी
और बदन के पास पहुँचकर भी कई हाथ पीछे ही पीछे चलने लगी; परन्तु उस कट्टर
बूढ़े ने घूमकर देखा भी नहीं।
नये
के मन में गाला का आकर्षण जाग उठा था। वह कभी-कभी अपनी बाँसुरी लेकर खारी
के तट पर चला जाता और बहुत धीरे-धीरे उसे फूँकता, उसके मन में भय उत्पन्न
हो गया था, अब वह नहीं चाहता था कि वह किसी की ओर अधिक आकर्षित हो। वह
सबकी आँखों से अपने को बचाना चाहता। इन सब कारणों से उसने एक कुत्ते को
प्यार करने का अभ्यास किया। बड़े दुलार से उसका नाम रखा था भालू। वह भी था
झबरा। निःसंदिग्ध आँखों से, अपने कानों को गिराकर, अगले दोनों पैर खड़े
किये हुए, वह नये के पास बैठा है, विश्वास उसकी मुद्रा से प्रकट हो रहा
है। वह बड़े ध्यान से बंसी की पुकार समझना चाहता है। सहसा नये ने बंसी बंद
करके उससे पूछा-
'भालू! तुम्हें यह गीत
अच्छा लगा?'
भालू ने कहा, 'भुँह!'
'ओहो,
अब तो तुम बड़े समझदार हो गये हो।' कहकर नये ने एक चपत धीरे से लगा दी। वह
प्रसन्नता से सिर झुकाकर पूँछ हिलाने लगा। सहसा उछलकर वह सामने की ओर भगा।
नये उसे पुकारता ही रहा; पर वह चला गया। नये चुपचाप बैठा उस पहाड़ी
सन्नाटे को देखता रहा। कुछ ही क्षण में भालू आगे दौड़ता और फिर पीछे लौटता
दिखाई पड़ी गाला की वृदावनी साड़ी, जब वह पकड़कर अगले दोनों पंजों से
पृथ्वी पर चिपक जाता और गाला उसे झिड़कती, तो वह खिलवाड़ी लड़के के सामान
उछलकर दूर जा खड़ा होता और दुम हिलाने लगता। नये उसकी क्रीड़ा को देखकर
मुस्कराता हुआ चुप बैठा रहा। गाला ने बनावटी क्रोध से कहा, 'मना करो अपने
दुलारे को, नहीं तो...'
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