उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'मैं उस जंगली जीवन से ऊब
गयी हूँ, मैं कुछ और ही चाहती हूँ-वह क्या है तुम्हीं बता सकते हो।'
'मैंने
जिसे जो बताया वह उसे समझ न सका गाला। मुझसे न पूछो, मैं आपत्ति का मारा
तुम लोगों की शरण में रह रहा हूँ।' कहते-कहते नये ने सिर नीचा कर लिया। वह
विचारों में डूब गया। गाला चुप थी। सहसा भालू जोर से भूँक उठा, दोनों ने
घूमकर देखा कि बदन चुपचाप खड़ा है। जब नये उठकर खड़ा होने लगा, तो वह
बोला, 'गाला! मैं दो बातें तुम्हारे हित की कहना चाहता हूँ और तुम भी सुनो
नये।'
'मेरा अब समय हो चला।
इतने दिनों तक मैंने तुम्हारी
इच्छाओं में कोई बाधा नहीं दी, यों कहो कि तुम्हारी कोई वास्तविक इच्छा ही
नहीं हुई; पर अब तुम्हारा जीवन चिरपरिचित देश की सीमा पार कर रहा है।
मैंने जहाँ तक उचित समझा, तुमको अपने शासन में रखा, पर अब मैं यह चाहता
हूँ कि तुम्हारा पथ नियत कर दूँ और किसी उपयुक्त पात्र की संरक्षता में
तुम्हें छोड़ जाऊँ।' इतना कहकर उसने एक भेदभरी दृष्टि नये के ऊपर डाली।
गाला कनखियों से देखती हुई चुप थी। बदन फिर कहने लगा, 'मेरे पास इतनी
सम्पत्ति है कि गाला और उसका पति जीवन भर सुख से रह सकते हैं-यदि उनकी
संसार में सरल जीवन बिता लेने की अधिक इच्छा न हो। नये! मैं तुमको उपयुक्त
समझता हूँ-गाला के जीवन की धारा सरल पथ से बहा ले चलने की क्षमता तुम में
है। तुम्हें यदि स्वीकार हो तो-'
'मुझे इसकी अकांक्षा पहले
से
थी। आपने मुझे शरण दी है। इसलिए गाला को मैं प्रताड़ित नहीं कर सकता।
क्योंकि मेरे हृदय में दाम्पत्य जीवन की सुख-साधना की सामग्री बची न रही।
तिस पर आप जानते हैं कि एक संदिग्ध हत्यारा मनुष्य हूँ!' नये ने इन बातों
को कहकर जैसे एक बोझ उतार फेंकने की साँस ली हो।
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