उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
एक बार पगली ने नन्दो
चाची की ओर देखा और नन्दो ने पगली
की ओर-रक्त का आकर्षण तीव्र हुआ, दोनों गले से मिलकर रोने लगीं। यह घटना
दूर पर हो रही थी। किशोरी और श्रीचन्द्र का उससे कुछ सम्बन्ध न था।
अकस्मात्
अन्धा रामदेव उठा और चिल्लाकर कहने लगा, 'पतित-पावन की जय हो। भगवान मुझे
शरण में लो!' जब तक उसे सब लोग देखें, तब तक वह सरयू की प्रखर धारा में
बहता हुआ, फिर डुबता हुआ दिखायी पड़ा।
घाट पर हलचल मच गयी।
किशोरी कुछ व्यस्त हो गयी। श्रीचन्द्र भी इस आकस्मिक घटना से चकित-सा हो
रहा था।
अब
यह एक प्रकार से निश्चित हो गया कि श्रीचन्द्र मोहन को पालेंगे और वे उसे
दत्तक रूप में भी ग्रहण कर सकते हैं। चाची को सन्तोष हो गया था, वह मोहन
के धनी होने की कल्पना में सुखी हो सकी। उसका और भी एक कारण था-पगली का
मिल जाना। वह आकस्मिक मिलन उन लोगों के लिए अत्यन्त हर्ष का विषय था।
किन्तु पगली अब तक पहचानी न जा सकी थी, क्योंकि वह बीमारी की अवस्था में
बराबर चाची के घर पर ही रही, श्रीचन्द्र से चाची को उसकी सेवा के लिए
रुपये मिलते। वह धीरे-धीरे स्वस्थ हो चली, परन्तु वह किशोरी के पास न
जाती। किशोरी को केवल इतना मालूम था कि नन्दो की पगली लड़की मिल गयी है।
एक दिन यह निश्चय हुआ कि सब लोग काशी चलें; पर पगली अभी जाने के लिए सहमत
न थी। मोहन श्रीचन्द्र के यहाँ रहता था। पगली भी किशोरी का सामना करना
नहीं चाहती थी; पर उपाय क्या था। उसे उन लोगों के साथ जाना ही पड़ा। उसके
पास केवल एक अस्त्र बचा था, वह था घूँघट! वह उसी की आड़ में काशी आयी।
किशोरी के सामने भी हाथों घूँघट निकाले रहती। किशोरी नन्दो के चिढ़ने से
डर से उससे कुछ न बोलती। मोहन को दत्तक लेने का समय समीप था, वह तब तक
चाची को चिढ़ाना भी न चाहती, यद्यपि पगली का घूँघट उसे बहुत खलता था।
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