उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'गाला! पर मैं कहता हूँ
कि वह उससे घृणा
करती थी। ऐसा क्यों! मैं न कह सकूँगा; पर है बात कुछ ऐसी ही।' सहसा रुककर
मंगल चुपचाप सोचने लगा-हो सकता है! ओह, अवश्य विजय और यमुना!-यही तो मानता
हूँ कि हृदय में एक आँधी रहती है; एक हलचल लहराया करती है, जिसके प्रत्येक
धक्के में 'बढ़ो-बढ़ो!' की घोषणा रहती है। वह पागलपन संसार को तुच्छ लघुकण
समझकर उसकी ओर उपेक्षा से हँसने का उत्साह देता है। संसार का कर्तव्य,
धर्म का शासन केले के पत्ते की तरह धज्जी-धज्जी उड़ जाता है। यही तो प्रणय
है। नीति की सत्ता ढोंग मालूम पड़ती है और विश्वास होता है कि समस्त
सदाचार उसी का साधना है। हाँ, वहीं सिद्धि है। आह, अबोध मंगल! तूने उसे
पाकर भी न पाया। नहीं-नहीं, वह पतन था, अवश्य माया थी। अन्यथा, विजय की ओर
इतनी प्राण दे देने वाली सहानुभूति क्यों आह, पुरुष-जीवन के कठोर सत्य!
क्या इस जीवन में नारी को प्रणय-मदिरा के रूप में गलकर तू कभी न मिलेगा
परन्तु स्त्री जल-सदृश कोमल एवं अधिक-से-अधिक निरीह है। बाधा देने की
सामर्थ्य नहीं; तब भी उसमें एक धारा है, एक गति है, पत्थरों की रुकावट की
उपेक्षा करके कतराकर वह चली ही जाती है। अपनी सन्धि खोज ही लेती है, और सब
उसके लिए पथ छोड़ देते हैं, सब झुकते हैं! सब लोहा मानते हैं किन्तु
सदाचार की प्रतिज्ञा, तो अर्पण करना होगा धर्म की बलिवेदी पर मन का
स्वातंत्र्य! कर तो दिया, मन कहाँ स्वतन्त्र रहा! अब उसे एक राह पर लगाना
होगा। वह जोर से बोल उठा, 'गाला! क्या यही!!'
गाला चिन्तित मंगल का
मुँह देख रही थी। वह हँस पड़ी। बोला, 'कहाँ घूम रहे हो मंगल?'
मंगल चौंक उठा। उसने
देखा, जिसे खोजता था वही कब से मुझे पुकार रहा है। वह तुरन्त बोला, 'कहीं
तो नहीं, गाला!'
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