उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
बात बदलने के लिए गाला
ने पाठ्यक्रम-सम्बन्धी अपने उपालम्भ कह सुनाये और पाठशाला के शिक्षाक्रम
का मनोरंजक विवाद छिड़ा। मंगल उस काननवासिनी के तर्कजालों में बार-बार
जान-बूझकर अपने को फँसा देता। अन्त में मंगल ने स्वीकार किया कि वह
पाठ्यक्रम बदला जायेगा। सरल पाठों में बालकों के चारित्र्य, स्वास्थ्य और
साधारण ज्ञान को विशेष सहायता देने को उपकरण जुटाया जायेगा।
स्वावलम्बन का व्यावहारिक
विषय निर्धारित होगा।
गाला
ने सन्तोष की साँस लेकर देखा-आकाश का सुन्दर शिशु बैठा हुआ बादलों की
क्रीड़ा-शैली पर हँस रहा था और रजनी शीतल हो चली थी। रोएँ अनुभूति में
सुगबुगाने लगे थे। दक्षिण पवन जीवन का सन्देश लेकर टेकरी पर विश्राम करने
लगा था। मंगल की पलकें भारी थीं और गाला झीम रही थी। कुछ ही देर में दोनों
अपने-अपने स्थान पर बिना किसी शैया के, आडम्बर के सो गये।
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