उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'मैं आर्यसमाज का विरोध
करता था,
मेरी धारणा थी कि धार्मिक समाज में कुछ भीतरी सुधार कर देने से काम चल
जायेगा; किन्तु गुरुदेव! यह आपका शिष्य मंगल आप ही की शिक्षा से आज यह
कहने का साहस करता है कि परिवर्तन आवश्यक है; एक दिन मैंने अपने मित्र
विजय का इन्हीं विचारों के लिए विरोध किया था; पर नहीं, अब मेरी यही दृढ़
धारणा हो गयी है कि इस जर्जर धार्मिक समाज में जो पवित्र हैं, वे पवित्र
बने रहें, मैं उन पतितों की सेवा करूँ, जिन्हें ठोकरें लग रही हैं, जो
बिलबिला रहे हैं।
'मुझे पतितपावन के पदांक
का अनुसरण करने की
आज्ञा दीजिए। गुरुदेव, मुझसे बढ़कर कौन पतित होगा कोई नहीं, आज मेरी आँखें
खुल गयी हैं, मैं अपने समाज को एकत्र करूँगा और गोपाल से तब प्रार्थना
करूँगा कि भगवान, तुममें यदि पावन करने की शक्ति हो तो आओ। अहंकारी समाज
के दम्भ से पद-दलितों पर अपनी करुणा-कादम्बिनी बरसाओ।'
मंगल की
आँखों में उत्तेजना के आँसू थे। उसका गला भर आया था। वह फिर कहने लगा,
'गुरुदेव! उन स्त्रियों की दया पर विचार कीजिये, जिन्हें कल ही आश्रम में
आश्रय मिला है।'
'मंगल! क्या तुमने
भली-भाँति विचार कर लिया और
विचार करने पर भी तुमने यही कार्यक्रम निश्चित किया है?' गम्भीरता से
कृष्णाशरण ने पूछा।
'गुरुदेव! जब कार्य करना
ही है तब उसे उचित
रूप क्यों ने दिया जाय! देवनिरंजन जी से परामर्श करने पर मैंने तो यही
निष्कर्ष निकाला है कि भारत संघ स्थापित होना चाहिए।'
'परन्तु
तुम मेरा सहयोग उसमें न प्राप्त कर सकोगे। मुझे इस आडम्बर में विश्वास
नहीं है, यह मैं स्पष्ट कह देना चाहता हूँ। मुझे फिर कोई एकान्त कुटिया
खोजनी पड़ेगी।' मुस्कुराते हुए कृष्णशरण ने कहा।
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