उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
सहसा जैसे गाला के हृदय
की
गति रुकने लगी। उसके कान में बदन के कराहने का स्वर सुनायी पड़ा, जैसे
पानी के लिए खाट के नीचे हाथ बढ़ाकर टटोल रहा हो। गाला से न रहा गया, वह
उठ खड़ी हुई। फिर निस्तब्ध आकाश की नीलिमा में वह बन्दी बना दी गयी। उसकी
इच्छा हुई कि चिल्लाकर रो उठे; परन्तु निरुपाय थी। उसने अपने रोने का
मार्ग भी बन्द कर दिया था। बड़ी बेचैनी थी। वह तारों को गिन रही थी, पवन
की लहरों को पकड़ रही थी।
सचमुच गाला अपने विद्रोही
हृदय पर खीज
उठी थी। वह अथाह अन्धकार के समुद्र में उभचुभ हो रही थी-नाक में, आँख में,
हृदय में जैसे अन्धकार भरा जा रहा था। अब उसे निश्चित हो गया कि वह डूब
गयी। वास्तव में वह विचारों में थककर सो गयी।
अभी पूर्व में
प्रकाश नहीं फैला था। गाला की नींद उचट गयी। उसने देखा, कोई बड़ी दाढ़ी और
मूँछोंवाला लम्बा-चौड़ा मनुष्य खड़ा है। चिन्तित रहने से गाला का मन
दुर्बल हो ही रहा था, उस आकृति को देखकर वह सहम गयी। वह चिल्लाना ही चाहती
थी कि उस व्यक्ति ने कहा, 'गाला, मैं हूँ नये!'
'तुम हो! मैं तो चौंक उठी
थी, भला तुम इस समय क्यों आये?'
'तुम्हारे पिता कुछ
घण्टों के लिए संसार में जीवित हैं, यदि चाहो तो देख सकती हो!'
'क्या
सच! तो मैं चलती हूँ।' कहकर गाला ने सलाई जलाकर आलोक किया। वह एक चिट पर
कुछ लिखकर पंडितजी के कम्बल के पास गयी। वे अभी सो रहे थे; गाला चिट उनके
सिरहाने रखकर नये के पास गयी, दोनों टेकरी से उतरकर सड़क पर चलने लगे।
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