उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
नये ने कहा, 'भला मैं
क्या करूँगा गाला। मेरा जीवन संसार
के भीषण कोलाहल से, उत्सव से और उत्साह से ऊब गया है। अब तो मुझे भीख मिल
जाती है। तुम तो इसे पाठशाला में पहुँचा सकती हो। मैं इसे वहाँ पहुँचा
सकता हूँ। फिर वह सिर झुकाकर मन-ही-मन सोचने लगा - जिसे मैं अपना कह सकता
हूँ, जिसे माता-पिता समझता था, वे ही जब अपने ही नहीं तो दूसरों की क्या?'
गाला ने देखा, नये के मन
में एक तीव्र विराग और वाणी में व्यंग्य
है। वह चुपचाप दिन भर खारी के तट पर बैठी हुई सोचती रही। सहसा उसने घूमकर
देखा, नये अपने कुत्ते के साथ कम्बल पर बैठा है। उसने पूछा, 'तो नये! यही
तुम्हारी सम्पत्ति है न?'
'हाँ, इससे अच्छा इसका
दूसरा उपयोग हो ही नहीं सकता। और यहाँ तुम्हारा अकेले रहना ठीक नहीं।' नये
ने कहा।
'हाँ
पाठशाला भी सूनी है - मंगलदेव वृन्दावन की एक हत्या में फँसी हुई यमुना
नाम की एक स्त्री के अभियोग की देख-रेख में गये हैं, उन्हें अभी कई दिन
लगेंगे।'
बीच में टोककर नये ने
पूछा, 'क्या कहा, यमुना? वह हत्या में फँसी है?'
'हाँ, पर तुम क्यों पूछते
हो?'
'मैं भी हत्यारा हूँ
गाला, इसी से पूछता हूँ, फैसला किस दिन होगा कब तक मंगलदेव आएँगे?'
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