उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
दोनों वकील मित्र हँसने
लगे।
पाठकों
को कुतूहल होगा कि बाथम ने अदालत में उपस्थित होकर क्यों नहीं इस हत्या पर
प्रकाश डाला। परन्तु वह नहीं चाहता था कि उस हत्या के अवसर पर उसका रहना
तथा उक्त घटना से उसका सम्पर्क सब लोग जान लें। उसका हृदय घण्टी के भाग
जाने से और भी लज्जित हो गया था। अब वह अपने को इस सम्बन्ध में बदनाम होने
से बचाना चाहता था। वह प्रचारक बन गया था।
इधर आश्रम में लतिका,
सरला, घण्टी और नन्दो के साथ यमुना भी रहने लगी, पर यमुना अधिकतर कृष्णशरण
की सेवा में रहती। उसकी दिनचर्या बड़ी नियमित थी। वह चाची से भी नहीं
बोलती और निरंजन उसके पास ही आने में संकुचित होता। भंडारीजी का तो साहस
ही उसका सामना करने का न हुआ।
पाठक आश्चर्य करेंगे कि
घटना-सूत्र तथा सम्बन्ध में इतने समीप के मनुष्य एक होकर भी चुपचाप कैसे
रहे ?
लतिका
और घण्टी का मनोमालिन्य न रहा, क्योंकि अब बाथम से दोनों का कोई सम्बन्ध न
रहा। नन्दो चाची ने यमुना के साथ उपकार भी किया था और अन्याय भी। यमुना के
हृदय में मंगल के व्यवहार की इतनी तीव्रता थी कि उसके सामने और किसी के
अत्याचार प्रस्फुटित हो नहीं पाते। वह अपने दुःख-सुख में किसी को साझीदार
बनाने की चेष्टा न करती। निरंजन सोचता मैं बैरागी हूँ। मेरे शरीर से
सम्बन्ध रखने वाले प्रत्येक परमाणुओं को मेरे दुष्कर्म के ताप से दग्ध
होना विधाता का अमोध विधान है, यदि मैं कुछ भी कहता हूँ, तो मेरा ठिकाना
नहीं, इसलिए जो हुआ, सो हुआ, अब इसमें चुप रह जाना ही अच्छा है। मंगल और
यमुना आप ही अपना रहस्य खोलें, मुझे क्या पड़ी है।
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