उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
|
2 पाठकों को प्रिय 371 पाठक हैं |
कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
गुलेनार ने इधर-उधर देखा,
तीन तालियाँ बजीं। मंगल आ गया, उसने कहा, 'ताँगा ठीक है।'
गुलेनार ने कहा, 'किधर?'
'चलो!'
दोनों हाथ पकड़कर बढ़े। चक्कर देखकर दोनों बाहर आ गये, ताँगे पर बैठे और
वह ताँगेवाला कौव्वालों की तान 'जिस-जिस को दिया चाहें' दुहराता हुआ चाबुक
लगाता घोड़े को उड़ा ले चला। चारबाग स्टेशन पर देहरादून जाने वाली गाड़ी
खड़ी थी। ताँगे वाले को पुरस्कार देकर मंगल सीधे गाड़ी में जाकर बैठ गया।
सीटी बजी, सिगनल हुआ, गाड़ी खुल गयी।
'तारा, थोड़ा भी विलम्ब
से गाड़ी न मिलती।'
'ठीक समय से पाती आ गया।
हाँ, यह तो कहो, मेरा पत्र कब मिला?'
'आज नौ बजे। मैं सामान
ठीक करके संध्या की बाट देख रहा था। टिकट ले लिये थे और ठीक समय पर तुमसे
भेंट हुई।'
'कोई पूछे तो क्या कहा
जायेगा?'
'अपने वेश्यापन के दो-तीन
आभूषण उतार दो और किसी के पूछने पर कहना-अपने पिता के पास जा रही हूँ, ठीक
पता बताना।'
तारा ने फुरती से वैसा ही
किया। वह एक साधारण गृहस्थ बालिका बन गयी।
वहाँ पूरा एकान्त था,
दूसरे यात्री न थे। देहरादून एक्सप्रेस वेग से जा रही थी।
मंगल
ने कहा, 'तुम्हें सूझी अच्छी। उस तुम्हारी दुष्ट अम्मा को यही विश्वास
होगा कि कोई दूसरा ही ले गया। हमारे पास तक तो उसका सन्देह भी न
पहुँचेगा।'
|