उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
लतिका
ने कहा, 'नारी-हृदय गल-गलकर आँखों की राह से उसकी अंजलि के यमुना-जल में
मिल रहा है।' वह अपने को रोक न सकी, लतिका और घण्टी गले से लगकर रोने
लगीं। लतिका ने कहा, 'आज से दुख में, सुख में हम लोग कभी साथ न छोड़ेंगी
बहन! संसार में गला बाँधकर जीवन बिताऊँगी, यमुना साक्षी है।'
दूर
यमुना और नन्दो चाची ने इस दृश्य को देखा। नन्दो का मन न जाने किन भावों
से भर गया। मानो जन्म-भर की कठोरता तीव्र भाप लगने से बरफ के समान गलने
लगी हो। उसने यमुना से रोते हुए कहा, 'यमुना, नहीं-नहीं, बेटी तारा! मुझे
भी क्षमा कर दे। मैंने जीवन भर बहुत सी बातें बुरी की हैं; पर जो कठोरता
तेरे साथ हुई है, वह नरक की आग से भी तीव्रदाह उत्पन्न कर रही है। बेटी!
मैं मंगल को उसी समय पहचान गयी, जब उसने अंगरेज से मेरी घण्टी को छुड़ाया
था; पर वह न पहचान सका, उसे वे बातें भूल गयी थीं, तिस पर मेरे साथ मेरी
बेटी थी, जिसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकता था। वह छलिया मंगल आज दूसरी
स्त्री से ब्याह करने की सुख चिंता में निमग्न है। मैं जल उठती हूँ बेटी!
मैं उसका सब भण्डा फोड़ देना चाहती थी; पर तुझे भी यहीं चुपचाप देखकर मैं
कुछ न कर सकी। हाय रे पुरुष!'
'नहीं चाची। अब वह दिन
चाहे लौट
आये, पर वह हृदय कहाँ से आवेगा। मंगल को दुःख पहुँचाकर आघात दे सकूँगी,
अपने लिए सुख कहाँ से लाऊँगी। चाची। तुम मेरे दुःखों की साक्षी हो, मैंने
केवल एक अपराध किया है-वह यही कि प्रेम करते समय साक्षी को इकट्ठा नहीं
करा लिया था; पर किया प्रेम। चाची यदि उसका यही पुरस्कार है, तो मैं उसे
स्वीकार करती हूँ।' यमुना ने कहा।
'पुरुष कितना बड़ा ढोंगी
है
बेटी। वह हृदय के विरुद्ध ही तो जीभ से कहता है आश्चर्य है, उसे सत्य कहकर
चिल्लाता है।' उत्तेजित चाची ने कहा।
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