उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'हम
लोगों को अपना हृदय-द्वार और कार्यक्षेत्र विस्तृत करना चाहिए, मानव
संस्कृति के प्रचार के लिए हम उत्तरदायी हैं। विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त
और हर्षवर्धन का रक्त हम है संसार भारत के संदेश की आशा में है, हम उन्हें
देने के उपयुक्त बनें-यही मेरी प्रार्थना है।'
आनन्द की करतल
ध्वनि हुई। मंगलदेव बैठा। गोस्वामी जी ने उठकर कहा, 'आज आप लोगों को एक और
हर्ष-समाचार सुनाऊँगा। सुनाऊँगा ही नहीं, आप लोग उस आनन्द के साक्षी
होंगे। मेरे शिष्य मंगलदेव का ब्रह्मचर्य की समाप्ति करके गृहस्थाश्रम में
प्रवेश करने का शुभ मुहूर्त भी आज ही का है। यह कानन-वासिनी गूजर बालिका
गाला अपने सत्साहस और दान से सीकरी में एक बालिका-विद्यालय चला रही है।
इसमें मंगलदेव और गाला दोनों का हाथ है। मैं इन दोनों पवित्र हाथों को एक
बंधन में बाँधता हूँ, जिसमें सम्मिलित शक्ति से ये लोग मानव-सेवा में
अग्रसर हों और यह परिणय समाज के लिए आदर्श हो!'
कोलाहल मच गया,
सब लोग गाला को देखने के लिए उत्सुक हुए। सलज्जा गाला गोस्वामी जी के
संकेत से उठकर सामने आयी। कृष्णशरण ने प्रतिमा से दो माला लेकर दोनों को
पहना दीं।
गाला और मंगलदेव ने
चौंककर देखा, 'पर उस भीड़ में कहने वाला न दिखाई पड़ा।'
भीड़
के पीछे कम्बल औढ़े, एक घनी दाढ़ी-मूँछ वाले युवक का कन्धा पकड़कर तारा ने
कहा, 'विजय बाबू! आप क्या प्राण देंगे। हटिये यहाँ से, अभी यह घटना टटकी
है।'
'नये, नहीं,' विजय ने
घूमकर कहा, 'यमुना! प्राण तो बच ही
गया; पर यह मनुष्य...' तारा ने बात काटकर कहा, 'बड़ा ढोंगी है, पाखण्डी
है, यही न कहना चाहते हैं आप! होने दीजिए, आप संसार-भर के ठेकेदार नहीं,
चलिए।'
तारा उसका हाथ पकड़कर
अन्धकार की ओर ले चली।
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