उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
अँधेरा हो चला, रात्रि
आयी, कितनों
के विभव-विकास पर चाँदनी तानने और कितनों के अन्धकार में अपनी व्यंग्य की
हँसी छिड़कने! विजय निष्चेष्ट था। उसका भालू उसके पास घूमकर आया, उसने
दुलार किया। विजय के मुँह पर हँसी आयी, उसने धीरे से हाथ उठाकर उसके सिर
पर रख पूछा, 'भालू! तुम्हें कुछ खाने को मिला?' भालू ने जँभाई लेकर जीभ से
अपना मुँह पोंछा, फिर बगल में सो रहा। दोनों मित्र निश्चेष्ट सोने का
अभिनय करने लगे।
एक भारी गठरी लिए दूसरा
भिखमंगा आकर उसी जगह
सोये हुए विजय को घूरने लगा। अन्धकार में उसकी तीव्रता देखी न गयी; पर वह
बोल उठा, 'क्यों बे बदमाश! मेरी जगह तूने लम्बी तानी है मारूँ डण्डे से,
तेरी खोपड़ी फूट जाय!'
उसने डण्डा ताना ही था कि
भालू झपट पड़ा।
विजय ने विकृत कण्ठ से कहा, 'भालू! जाने दो, यह मथुरा का थानेदार है, घूस
लेने के अपराध में जेल काटकर आया है, यहाँ भी तुम्हारा चालान कर देगा तब?'
भालू लौट पड़ा और नया
भिखमंगा एक बार चौंक उठा, 'कौन है रे?' कहता
वहाँ से खिसक गया। विजय फिर निश्चिन्त हो गया। उसे नींद आने लगी। पैरों
में सूजन थी, पीड़ा थी, अनाहार से वह दुर्बल था।
एक घण्टा बीता न
होगा कि एक स्त्री आयी, उसने कहा, 'भाई!' 'बहन!' कहकर विजय उठ बैठा। उस
स्त्री ने कुछ रोटियाँ उसके हाथ पर रख दीं। विजय खाने लगा। स्त्री ने कहा,
'मेरी नौकरी लग गयी भाई! अब तुम भूखे न रहोगे।'
'कहाँ बहन दूसरी रोटी
समाप्त करते हुए विजय ने पूछा।
'श्रीचन्द्र के यहाँ।'
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