उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
उसकी धड़कन बढ़ गयी, वह
तिलमिलाकर देखने
लगा। अन्तिम साँस में कोई आँसू बहाने वाला न था, वह देखकर उसे प्रसन्नता
हुई। उसने मन-ही-मन कहा-इस अन्तिम घड़ी में हे भगवान्! मैं तुमको स्मरण
करता हूँ; आज तक कभी नहीं किया था, तब भी तुमने मुझे कितना बचाया, कितनी
रक्षा की! हे मेरे देव! मेरा नमस्कार ग्रहण करो, इस नास्तिक का समर्पण
स्वीकार करो! अनाथों के देव! तुम्हारी जय हो!
उसी क्षण उसके हृदय की
गति बन्द हो गयी।
आठ
बजे भारत-संघ का प्रदर्शन निकलने वाला था। दशाश्वमेध घाट पर उसका प्रचार
होगा। सब जगह बड़ी भीड़ है। आगे स्त्रियों का दल था, जो बड़ा ही करुण
संगीत गाता जा रहा था, पीछे कुछ स्वयंसेवियों की श्रेणी थी। स्त्रियों के
आगे घण्टी और लतिका थीं। जहाँ से दशाश्वमेध के दो मार्ग अलग हुए हैं, वहाँ
आकर वे लोग अलग-अलग होकर प्रचार करने लगे। घण्टी उस भिखमंगों वाले पीपल के
पास खड़ी होकर बोल रही थी। उसके मुख पर शान्ति थी, वाणी में स्निग्धता थी।
वह कह रही थी, 'संसार को इतनी आवश्यकता किसी अन्य वस्तु की नहीं, जितनी
सेवा की। देखो-कितने अनाथ यहाँ अन्न, वस्त्र विहीन, बिना किसी औषधि-उपचार
के मर रहे हैं। हे पुण्यार्थियो! इन्हें ना भूलो, भगवान अभिनय करके इसमें
पड़े हैं, वह तुम्हारी परीक्षा ले रहे हैं। इतने ईश्वर के मंदिर नष्ट हो
रहे हैं धार्मिको। अब भी चेतो!'
सहसा उसकी वाणी बंद हो
गयी। उसने
स्थिर दृष्टि से एक पड़े हुए कंगले को देखा, वह बोल उठी, 'देखो वह बेचारा
अनाहार-से मर गया-सा मालूम पड़ता है। इसका संस्कार...'
'हो
जायेगा। हो जायेगा। आप इसकी चिन्ता न कीजिये, अपनी अमृतवाणी बरसाइये।'
जनता में कोलाहल होने चला; किन्तु वह आगे बढ़ी; भीड़ भी उधर ही जाने लगी।
पीपल के पास सन्नाटा हो चला।
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