उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
श्रीचन्द्र ने दस का नोट
निकालकर दिया। यमुना प्रसन्नता से बोली, 'मेरी भी आयु लेकर जियो मेरे
लाल।'
वह
शव के पास चल पड़ी; परन्तु उस संस्कार के लिए कुछ लोग भी चाहिए, वे कहाँ
से आवें। यमुना मुँह फिराकर चुपचाप खड़ी थी। घण्टी चारों और देखती हुई फिर
वहीं आयी। उसके साथ चार स्वयंसेवक थे।
स्वंयसेवकों ने पूछा,
'यही न देवीजी?'
'हाँ।' कहकर घण्टी ने
देखा कि एक स्त्री घूँघट काढ़े, दस रुपये का नोट स्वयंसेवक के हाथ में दे
रही है।
घण्टी ने कहा, 'दान है
पुण्यभागिनी का-ले लो, जाकर इससे सामान लाकर मृतक संस्कार करवा दो।'
स्वयंसेवक
ने उसे ले लिया। वह स्त्री बैठी थी। इतने में मंगलदेव के साथ गाला भी आयी।
मंगल ने कहा, 'घण्टी! मैं तुम्हारी इस तत्परता से बड़ा प्रसन्न हुआ। अच्छा
अब बोलो, अभी बहुत-सा काम बाकी है।'
'मनुष्य के हिसाब-किताब
में काम ही तो बाकी पड़े मिलते हैं।' कहकर घण्टी सोचने लगी। फिर उस शव की
दीन-दशा मंगल को संकेत से दिखलायी।
मंगल ने देखा एक स्त्री
पास ही मलिन वसन में बैठी है। उसका घूँघट आँसुओं से भींग गया है और
निराश्रय पड़ा है एक कंकाल!